बुधवार, 24 दिसंबर 2014

Online लेखन प्रतियोगिता

नियम बड़े ही सरल हैं। नीचे दिए गए चित्र को देख आपको जो भी महसूस हो, उसे कागज़ पर उतार दें। लेख की लंबाई पर कोई रोक - टोक नहीं है।




11:59 pm, 2 जनवरी से पहले अपनी प्रविष्टी iitbwriteup@gmail.com पर अवश्य भेज दें। प्रत्येक प्रतियोगी की केवल एक प्रविष्टी को ही मान दिया जाएगा। 

दो सर्वोत्तम प्रविष्टियों को 500/- रुपये प्रति विजेता का नकद इनाम दिया जाएगा।   

गुरुवार, 18 दिसंबर 2014

इस कविता को कितनी ही बार पढ़े, रौंगटे खड़े हो जाते हैं  |

आदरणीय गुप्त जी द्वारा लिखी हुई एक अनमोल कृति -

एक फूल की चाह
उद्वेलित कर अश्रु-राशियाँ,
              हृदय-चिताएँ धधकाकर,
महा महामारी प्रचण्ड हो
              फैल रही थी इधर उधर।
क्षीण-कण्ठ मृतवत्साओं का
              करुण-रुदन दुर्दान्त नितान्त,
भरे हुए था निज कृश रव में
              हाहाकार अपार अशान्त।
बहुत रोकता था सुखिया को
              'न जा खेलने को बाहर',
नहीं खेलना रुकता उसका
              नहीं ठहरती वह पल भर।
मेरा हृदय काँप उठता था
,
              बाहर गई निहार उसे;
यही मानता था कि बचा लूँ
              किसी भांति इस बार उसे।
भीतर जो डर रहा छिपाये
,
              हाय! वही बाहर आया।
एक दिवस सुखिया के तनु को
              ताप-तप्त मैंने पाया।
ज्वर से विह्वल हो बोली वह
,
              क्या जानूँ किस डर से डर -
मुझको देवी के प्रसाद का
              एक फूल ही दो लाकर।

बेटी
, बतला तो तू मुझको
              किसने तुझे बताया यह;
किसके द्वारा
, कैसे तूने
              भाव अचानक पाया यह?
मैं अछूत हूँ
, मुझे कौन हा!
              मन्दिर में जाने देगा;
देवी का प्रसाद ही मुझको
              कौन यहाँ लाने देगा?
बार बार
, फिर फिर, तेरा हठ!
              पूरा इसे करूँ कैसे;
किससे कहे कौन बतलावे
,
              धीरज हाय! धरूँ कैसे?
कोमल कुसुम समान देह हा!
              हुई तप्त अंगार-मयी;
प्रति पल बढ़ती ही जाती है
              विपुल वेदना, व्यथा नई।
मैंने कई फूल ला लाकर
              रक्खे उसकी खटिया पर;
सोचा - शान्त करूँ मैं उसको
,
              किसी तरह तो बहला कर।
तोड़-मोड़ वे फूल फेंक सब
              बोल उठी वह चिल्ला कर -
मुझको देवी के प्रसाद का
              एक फूल ही दो लाकर!

क्रमश: कण्ठ क्षीण हो आया
,
              शिथिल हुए अवयव सारे,
बैठा था नव-नव उपाय की
              चिन्ता में मैं मनमारे।
जान सका न प्रभात सजग से
              हुई अलस कब दोपहरी,
स्वर्ण-घनों में कब रवि डूबा
,
              कब आई सन्ध्या गहरी।
सभी ओर दिखलाई दी बस
,
              अन्धकार की छाया गहरी।
छोटी-सी बच्ची को ग्रसने
              कितना बड़ा तिमिर आया!
ऊपर विस्तृत महाकाश में
              जलते-से अंगारों से,
झुलसी-सी जाती थी आँखें
              जगमग जगते तारों से।
देख रहा था - जो सुस्थिर हो
              नहीं बैठती थी क्षण भर,
हाय! बही चुपचाप पड़ी थी
              अटल शान्ति-सी धारण कर।
सुनना वही चाहता था मैं
              उसे स्वयं ही उकसा कर -
मुझको देवी के प्रसाद का
              एक फूल ही दो लाकर!

हे मात:
, हे शिवे, अम्बिके,
              तप्त ताप यह शान्त करो;
निरपराध छोटी बच्ची यह
,
              हाय! न मुझसे इसे हरो!
काली कान्ति पड़ गई इसकी
,
              हँसी न जाने गई कहाँ,
अटक रहे हैं प्राण क्षीण तर
              साँसों में ही हाय यहाँ!
अरी निष्ठुरे
, बढ़ी हुई ही
              है यदि तेरी तृषा नितान्त,
तो कर ले तू उसे इसी क्षण
              मेरे इस जीवन से शान्त!
मैं अछूत हूँ तो क्या मेरी
              विनती भी है हाय! अपूत,
उससे भी क्या लग जावेगी
              तेरे श्री-मन्दिर को छूत?
किसे ज्ञात
, मेरी विनती वह
              पहुँची अथवा नहीं वहाँ,
उस अपार सागर का दीखा
              पार न मुझको कहीं वहाँ।
अरी रात
, क्या अक्ष्यता का
              पट्टा लेकर आई तू,
आकर अखिल विश्व के ऊपर
              प्रलय-घटा सी छाई तू!
पग भर भी न बढ़ी आगे तू
              डट कर बैठ गई ऐसी,
क्या न अरुण-आभा जागेगी
,
              सहसा आज विकृति कैसी!
युग के युग-से बीत गये हैं
,
              तू ज्यों की त्यों है लेटी,
पड़ी एक करवट कब से तू
,
              बोल, बोल, कुछ तो बेटी!
वह चुप थी
, पर गूँज रही थी
              उसकी गिरा गगन-भर भर -
'मुझको देवी के प्रसाद का -
              एक फूल तुम दो लाकर!'

"कुछ हो देवी के प्रसाद का
              एक फूल तो लाऊँगा;
हो तो प्रात:काल
, शीघ्र ही
              मन्दिर को मैं जाऊँगा।
तुझ पर देवी की छाया है
              और इष्ट है यही तुझे;
देखूँ देवी के मन्दिर में
              रोक सकेगा कौन मुझे।"
मेरे इस निश्चल निश्चय ने
              झट-से हृदय किया हलका;
ऊपर देखा - अरुण राग से
              रंजित भाल नभस्थल का!
झड़-सी गई तारकावलि थी
              म्लान और निष्प्रभ होकर;
निकल पड़े थे खग नीड़ों से
              मानों सुध-बुध सी खो कर।
रस्सी डोल हाथ में लेकर
              निकट कुएँ पर जा जल खींच,
मैंने स्नान किया शीतल हो
,
              सलिल-सुधा से तनु को सींच।
उज्वल वस्र पहन घर आकर
              अशुचि ग्लानि सब धो डाली।
चन्दन-पुष्प-कपूर-धूप से
              सजली पूजा की थाली।
सुकिया के सिरहाने जाकर
              मैं धीरे से खड़ा हुआ।
आँखें झँपी हुई थीं
, मुख भी
              मुरझा-सा था पड़ा हुआ।
मैंने चाहा - उसे चुम लें
,
              किन्तु अशुचिता से डर कर
अपने वस्त्र सँभाल
, सिकुड़कर
              खड़ा रहा कुछ दूरी पर।
वह कुछ कुछ मुसकाई सहसा
,
              जाने किन स्वप्नों में लग्न,
उसकी वह मुसकाहट भी हा!
              कर न सकी मुझको मुद-मग्न।
अक्षम मुझे समझकर क्या तू
              हँसी कर रही है मेरी?
बेटी
, जाता हूँ मन्दिर में
              आज्ञा यही समझ तेरी।
उसने नहीं कहा कुछ
, मैं ही
              बोल उठा तब धीरज धर -
तुझको देवी के प्रसाद का
              एक फूल तो दूँ लाकर!
ऊँचे शैल-शिखर के ऊपर
              मन्दिर था विस्तीर्ण विशाल;
स्वर्ण-कलश सरसिज विहसित थे
              पाकर समुदित रवि-कर-जाल।
परिक्रमा-सी कर मन्दिर की
,
              ऊपर से आकर झर झर,
वहाँ एक झरना झरता था
              कल कल मधुर गान कर कर।
पुष्प-हार-सा जँचता था वह
              मन्दिर के श्री चरणों में,
त्रुटि न दिखती थी भीतर भी
              पूजा के उपकरणों में।
दीप-दूध से आमोदित था
              मन्दिर का आंगन सारा;
गूँज रही थी भीतर-बाहर
              मुखरित उत्सव की धारा।
भक्त-वृन्द मृदु-मधुर कण्ठ से
              गाते थे सभक्ति मुद-मय -
"पतित-तारिणि पाप-हारिणी
,
              माता, तेरी जय-जय-जय!"
"पतित-तारिणी
, तेरी जय-जय" -
              मेरे मुख से भी निकला,
बिना बढ़े ही मैं आगे को
              जानें किस बल से ढिकला!
माता
, तू इतनी सुन्दर है,
              नहीं जानता था मैं यह;
माँ के पास रोक बच्चों की
,
              कैसी विधी यह तू ही कह?
आज स्वयं अपने निदेश से
              तूने मुझे बुलाया है;
तभी आज पापी अछूत यह
              श्री-चरणों तक आया है।
मेरे दीप-फूल लेकर वे
              अम्बा को अर्पित करके
दिया पुजारी ने प्रसाद जब
              आगे को अंजलि भरके,
भूल गया उसका लेना झट
,
              परम लाभ-सा पाकर मैं।
सोचा - बेटी को माँ के ये
              पुण्य-पुष्प दूँ जाकर मैं।

सिंह पौर तक भी आंगन से
              नहीं पहुँचने मैं पाया,
सहसा यह सुन पड़ा कि - "कैसे
              यह अछूत भीतर आया?
पकड़ो
, देखो भाग न जावे,
              बना धूर्त यह है कैसा;
साफ-स्वच्छ परिधान किये है
,
              भले मानुषों जैसा!
पापी ने मन्दिर में घुसकर
              किया अनर्थ बड़ा भारी;
कुलषित कर दी है मनिदर की
              चिरकालिक शुचिता सारी।"
, क्या मेरा कलुष बड़ा है
              देवी की गरिमा से भी;
किसी बात में हूँ मैं आगे
              माता की महिमा से भी?
माँ के भक्त हुए तुम कैसे
,
              करके यह विचार खोटा 
माँ से सम्मुख ही माँ का तुम
              गौरव करते हो छोटा!
कुछ न सुना भक्तों ने
, झट से
              मुझे घेर कर पकड़ लिया;
मार मार कर मुक्के-घूँसे
              धम-से नीचे गिरा दिया!
मेरे हाथों से प्रसाद भी
              बिखर गया हा! सब का सब,
हाय! अभागी बेटी तुझ तक
              कैसे पहुँच सके यह अब।
मैंने उनसे कहा - दण्ड दो
              मुझे मार कर, ठुकरा कर,
बस यह एक फूल कोई भी
              दो बच्ची को ले जाकर।

न्यायालय ले गये मुझे वे
              सात दिवस का दण्ड-विधान
मुझको हुआ
; हुआ था मुझसे
              देवी का महान अपमान!
मैंने स्वीकृत किया दण्ड वह
              शीश झुकाकर चुप ही रह;
उस असीम अभियोग
, दोष का
              क्या उत्तर देता; क्या कह?
सात रोज ही रहा जेल में
              या कि वहाँ सदियाँ बीतीं,
अविस्श्रान्त बरसा करके भी
              आँखें तनिक नहीं रीतीं।
कैदी कहते - "अरे मूर्ख
, क्यों
              ममता थी मन्दिर पर ही?
पास वहाँ मसजिद भी तो थी
              दूर न था गिरिजाघर भी।"
कैसे उनको समझाता मैं
,
              वहाँ गया था क्या सुख से;
देवी का प्रसाद चाहा था
              बेटी ने अपने मुख से।

दण्ड भोग कर जब मैं छूटा
,
              पैर न उठते थे घर को
पीछे ठेल रहा था कोई
              भय-जर्जर तनु पंजर को।
पहले की-सी लेने मुझको
              नहीं दौड़ कर आई वह;
उलझी हुई खेल में ही हा!
              अबकी दी न दिखाई वह।
उसे देखने मरघट को ही
              गया दौड़ता हुआ वहाँ -
मेरे परिचित बन्धु प्रथम ही
              फूँक चुके थे उसे जहाँ।
बुझी पड़ी थी चिता वहाँ पर
              छाती धधक उठी मेरी,
हाय! फूल-सी कोमल बच्ची
              हुई राख की थी ढेरी!
अन्तिम बार गोद में बेटी
,
              तुझको ले न सका मैं हाय!
एक फूल माँ का प्रसाद भी
              तुझको दे न सका मैं हा!
वह प्रसाद देकर ही तुझको
              जेल न जा सकता था क्या?
तनिक ठहर ही सब जन्मों के
              दण्ड न पा सकता था क्या?
बेटी की छोटी इच्छा वह
              कहीं पूर्ण मैं कर देता
तो क्या अरे दैव
, त्रिभुवन का
              सभी विभव मैं हर लेता?
यहीं चिता पर धर दूँगा मैं
,
              - कोई अरे सुनो, वर दो -
मुझको देवी के प्रसाद का
              एक फूल ही लाकर दो!
- सियाराम शरण गुप्त


सोमवार, 8 दिसंबर 2014

कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये

कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये

-दुष्यंत कुमार


कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये,
कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिये। 

यहाँ दरख़्तों के साये में धूप लगती है,
चलो यहाँ से चले और उम्र भर के लिये। 

न हो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगे,
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिये। 

ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही,
कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिये। 

वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता,
मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिये। 

जियें तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले,
मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिये। 


मयस्सर = उपलब्ध
मुतमईन = संतुष्ट
मुनासिब = ठीक

गुरुवार, 4 दिसंबर 2014

 धर्मेन्द्र  कुमार धीर  ' धरम '  जी निसंदेह ही संस्थान के अग्रणी कवि में से एक है . उर्दू और हिंदी साहित्य में गहरी समझ और शौक रखने वाले  'धरम' जी की  रचनायों में  परिपक्वता और भाषा में उत्कृष्टा काबिलेतारीफ है . आज वाणी के ब्लॉग पर पेश है 'धरम' जी की कुछ उम्दा ग़ज़ले

वक़्त से आगे

मैं जो वक़्त से आगे निकलना चाह रहा था  
हर ओर दीवारें थी न कोई राह मिल रहा था

सारे राहगर मुझसे कब के पीछे छूट गए थे
वक़्त राक्षश के मानिंद आग उगल रहा था

बहुत दूर पर वहां देखा पत्थर पिघल रहा था
मानव बनकर दानव कुछ और उबल रहा था

बारिश में शबनम के साथ शोला गिर रहा था
खेत कभी खिल रहा था तो कभी जल रहा था

पूनम की चांदनी का रंग काला पड़ गया था
औ" अँधेरे में तो सबको सबकुछ दिख रहा था


चंद शेर

1.

तेरे शक्ल का नक़ाब लिए मैं खुद मारा फिरता हूँ
तेरे दुश्मन की गली में मैं यूँ ही आवारा फिरता हूँ

2.

ऐे गर्द-ए-सफर तेरा शुक्रिया
उसके गली की एक निशानी तो साथ है

3.

न जाने किस चमन की खुशबू फैली है मेरी ज़िंदगी में "धरम"
जो सिमट गई तो बिखर गई औ" जो बिखर गई तो सिमट गई

4.

ज़िंदगी कितनी नमकीन है तब पता चलता है
जब सारा मिठास बनकर पसीना बह जाता है

5.

कुछ दर्द मुझसे उधार लो तुम अपनी ज़िंदगी सँवार लो
कुछ ख़ुशी मुझको उधार दो मैं अपनी ज़िंदगी सँवार लूँ

6.

ये कैसी महफ़िल है कि यहाँ हर चेहरा अजनबी है
बस मैं एक फ़क़ीर हूँ और बाकी सब रियासती है

फिर से गुजार लूँ

गुज़रे वक़्त को मैं फिर से गुजार लूँ
बस की आ मेरी जाँ मैं तुमको सँवार लूँ

पा कर तेरी झलक मैं चेहरा निखार लूँ
औ' अपने दिल में तेरी तस्वीर उतार लूँ

रखकर हाथों में तेरा हाथ मैं तुझसे क़रार लूँ
तुम अपनी आदत सुधारो मैं अपनी सुधार लूँ

गिले-शिकवे की बातें बस अभी ही बिसार लूँ
मोहब्बत में न तो तुम उधार लो न मैं उधार लूँ

बुधवार, 9 जुलाई 2014

सदाबहार गीत -संगीत

कवितायेँ पढ़ पढ़  कर थोड़ा बोर हो गए ? तो आज पेश है आपके लिए कुछ बेहतरीन गाने आला दर्ज़ की लिरिक्स के साथ ! गाने भी बुनियादी तौर पर  कविता या ग़ज़ल ही होते है ,कुछ पेचदिगियों के साथ , मसलन गानो में तुकबन्दी आवश्यक  होती है। तो देर किस बात की , सुनिये साहिर लुधियानवी , गुलज़ार , प्रसून जोशी , अमिताभ भटटचार्य सरीके गीतकारों की कलम से निकले हुए ये लाजवाब गाने !

1.) Main pal do pal ka shaayar hun / मैं पल दो पल का शायर हूँ, पल दो पल मेरी      कहानी हैं .


मैं पल दो पल का शायर हूँ, पल दो पल मेरी कहानी हैं
पल दो पल मेरी हस्ती है, पल दो पल मेरी जवानी हैं

मुझ से पहले कितने शायर, आये और आकर चले गए
कुछ आहे भर कर लौट गए, कुछ नग्में गा कर चले गए
वो भी एक पल का किस्सा थे, मैं भी एक पल का किस्सा हूँ
कल तुम से जुदा हो जाऊंगा, वो आज तुम्हारा हिस्सा हूँ

कल और आयेंगे, नग्मों की खिलती कलियाँ चुननेवाले
मुझ से बेहतर कहनेवाले, तुम से बेहतर सुननेवाले
कल कोई मुझको याद करे, क्यों कोई मुझको याद करे
मसरूफ ज़माना मेरे लिए, क्यों वक्त अपना बरबाद करे

जाने वो कैसे लोग थे जिनके प्यार को प्यार मिला
हमने तो जब कलियाँ माँगी काँटों का हार मिला

खुशियों की मंज़िल ढूँढी तो ग़म की गर्द मिली
चाहत के नग़मे चाहे तो आहें सर्द मिली
दिल के बोझ को दूना कर गया जो ग़मखार मिला
हमने तो जब...

बिछड़ गया हर साथी देकर पल दो पल का साथ
किसको फ़ुरसत है जो थामे दीवानों का हाथ
हमको अपना साया तक अक्सर बेज़ार मिला
हमने तो जब...

इसको ही जीना कहते हैं तो यूँ ही जी लेंगे
उफ़ न करेंगे लब सी लेंगे आँसू पी लेंगे
ग़म से अब घबराना कैसा, ग़म सौ बार मिला
हमने तो जब...




3.) आगे भी जाने न तू (वक्त -1965) Aage bhi jane na tu (Waqt-1965) 


आगे  भी जाने न तू,  पीछे भी जाने न तू
जो भी है बस इक यही पल है ..

अनजाने सायों का राहों में डेरा  है
अनदेखी ने हम सब को घेरा है
ये पल उजाला है बाकी अँधेरा है
ये पल गंवाना ना ये पल ही तेरा है
जीने वाले सोच ले, यही वक्त है,  कर ले पूरी आरज़ू
आगे  भी जाने न तू,  पीछे भी जाने न तू
जो भी है बस इक यही पल है ..

इस पल के जलवों ने महफ़िल संवारी  है
इस पल की गर्मी ने धड़कन उभारी है
इस पल के होने से दुनिया हमारी है
ये पल जो देखो तो सदियों पे भारी है
जीने वाले सोच ले यही वक्त है,  कर ले पूरी आरज़ू
आगे  भी जाने न तू,  पीछे भी जाने न तू
जो भी है बस इक यही पल है ..

इस पल के साए में अपना ठिकाना है
इस पल के आगे हर शै फ़साना है
कल किसने देखा है, कल किसने जाना है
इस पल से पायेगा जो तुझको पाना है
जीने वाले सोच ले यही वक्त है,  कर ले पूरी आरज़ू
आगे  भी जाने न तू,  पीछे भी जाने न तू
जो भी है बस इक यही पल है ..


4.) रु-ब-रु (Robaroo)
सितार में बदल गया
रु-ब-रु रोशनी हे - 2

(धुआँ छटा खुला गगन मेरा
नयी डगर नया सफ़र मेरा
जो बन सके तू हमसफ़र मेरा
नज़र मिला ज़रा) - 2

आँधियों से झगड़ रही है लौ मेरी
अब मशालों सी बढ़ रही है लौ मेरी
नामो निशान रहे ना रहे
ये कारवाँ रहे ना रहे
उजाले में पी गया
रोशन हुआ जी गया
क्यों सहते रहे
रु-ब-रु रोशनी  हे - 2

धुआँ छटा खुला गगन मेरा
नयी डगर नया सफ़र मेरा
जो बन सके तू हमसफ़र मेरा
नज़र मिला ज़रा
रु-ब-रु रोशनी  हे - 2
ए साला - 4
ए साला
अभी अभी हुआ यक़ीन की आग है मुझ में कही
हुई सुबाह मैं चल गया
सूरज को मैं निगल गया
रु-ब-रु रोशनी हे - 2

जो गुमशुदा-सा ख्वाब था
वो मिल गया वो खिल गया
वो लोहा था पिघल गया
खिंचा खिंचा मचल गया


5.) Tu Bin Bataye Mujhe Le Chal Kahi / तू बीन बतायें मुझे ले चल कहीं

तू बीन बतायें मुझे ले चल कहीं
जहां तू मुस्कूरायें मेरी मंझिल वहीं

मिठी लगी, चख के देखी अभी
मिश्री की डली, जिंदगी हो चली
जहां हैं तेरी बाहें, मेरा साहील वहीं

मन की गली तू पुहारों सी आ
भीग जायें मेरे ख्वाबों का काफिला
जिसे तू गुनगुनायें मेरी धून हैं वहीं

6.) आज़ादियाँ - Aazaadiyan 

पैरों की बेड़ियाँ ख्वाबों को बांधे नहीं रे, कभी नहीं रे मिट्टी की परतों को नन्हे से अंकुर भी चीरे, धीरे-धीरे इरादे हरे-भरे, जिनके सीनों में घर करे वो दिल की सुने, करे, ना डरे, ना डरे सुबह की किरनों को रोकें, जो सलाखें है कहाँ जो खयालों पे पहरे डाले वो आँखें है कहाँ पर खुलने की देरी है परिंदे उड़ के चूमेंगे आसमां आसमां आसमां आज़ादियाँ, आज़ादियाँ मांगे न कभी, मिले, मिले, मिले आज़ादियाँ, आज़ादियाँ जो छीने वही, जी ले, जी ले, जी ले सुबह की किरनों... कहानी ख़तम है या शुरुआत होने को है सुबह नयी है ये या फिर रात होने को है आने वाला वक़्त देगा पनाहें या फिर से मिलेंगे दो राहें खबर क्या, क्या पता

7.) नाव - Naav

चढ़ती लहरें लांघ न पाए क्यूँ हांफती सी नाव है तेरी तिनका-तिनका जोड़ ले सांसें क्यूँ हांफती सी... उलटी बहती धार है बैरी के अब कुछ कर जा रे बंधू जिगर जुटा के पाल बाँध ले, है बात ठहरी जान (शान) पे तेरी, हैय्या हो की तान साध ले, जो बात ठहरी जान (शान) पे तेरी, चल जीत-जीत लहरा जा, परचम तू लाल फहरा जा, अब कर जा तू या मर जा, कर ले तैयारी, उड़ जा बन के धूप का पंछी, छुड़ा के गहरी छाँव अँधेरी, छाँव अँधेरी, तिनका-तिनका जोड़... रख देगा झंकझोर के तुझे, तूफानों का घोर है डेरा, भंवर से डर जो हार मान ले, काहे का फिर जोर है तेरा, है दिल में रौशनी तेरे, तू चीर डाल सब घेरे, लहरों की गर्दन कसके डाल फंदे रे, कि दरिया बोले वाह रे पंथी, सर आँखों पे नाव है तेरी चढ़ती लहरें लांघ...

रविवार, 29 जून 2014

अस्तोदय_की_वीणा

श्री रामनरेश त्रिपाठी की उल्लेखनीय काव्य कृति " मानसी"  की अविस्मरणीय रचना "अस्तोदय की वीणा"  जो अति सरलतापूर्ण तरीके से प्रकृति के उदहारण देकर दे जाती आपकी रगों में जोश, कुछ कर गुजरने का। 

बाजे अस्तोदय की वीणा--क्षण-क्षण गगनांगण में रे।
   हुआ प्रभात छिप गए तारे,
   संध्या हुई भानु भी हारे,
यह उत्थान पतन है व्यापक प्रति कण-कण में रे॥
  ह्रास-विकास विलोक इंदु में, 
  बिंदु सिन्धु में सिन्धु बिंदु में,
कुछ भी है थिर नहीं जगत के संघर्षण में रे॥
  ऐसी ही गति तेरी होगी, 
  निश्चित है क्यों देरी होगी,
गाफ़िल तू क्यों है विनाश के आकर्षण में रे॥ 
  निश्चय करके फिर न ठहर तू, 
  तन रहते प्रण पूरण कर तू,
विजयी बनकर क्यों न रहे तू जीवन-रण में रे?

शनिवार, 28 जून 2014

सामान्य ज्ञान प्रश्नोत्तरी

Q1.


कौन - सी दो भाषाओँ के  नाम छिपे हुए  हैं ?
Q2.

इस भाषण के वक्ता कौन हैं और यह कहाँ पर दिया गया था ? यह भाषण यादगार क्यों है ?

Q3. X का जन्म सन् 1934 में नैनीताल में हुआ था । मेरठ कॉलेज से B.Sc. करने के बाद, इन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्याला से अपनी M.Sc. और Ph.D. की डिग्रियाँ हासिल कीं । यह अपना भौतिकी का शोध पत्र हिंदी में लिखने वाले पहले इंसान थे । बाद में जाकर यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुख्य अंग और देश के मानव संसाधन मंत्री भी बने ।  
X कौन हैं ?
Q4.

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कौन से शब्द छुपे हुए हैं ? सिर्फ एकदम सटीक उत्तर ही मान्य होगा ।


Q5.


 किस कंपनी के विज्ञापन के बोल हैं यह ?

शुक्रवार, 27 जून 2014

आग जलती रहे

दुष्यंत कुमार की प्रसिद्ध कविता 'आग जलती रहे' ; जिंदगी में कितने ही संघर्ष भरे दिन आते हैं , कितने ही अग्नि परीक्षाओं में हमें सफल होना पड़ता है , परन्तु सफलता हमारे कदमों में तभी शरण लेती है जब तक सही वक़्त नहीं आता , इंसान की सोई हुई चेतना नहीं जागती !

एक तीखी आँच ने
इस जन्म का हर पल छुआ,
आता हुआ दिन छुआ
हाथों से गुजरता कल छुआ
हर बीज, अँकुआ, पेड़-पौधा,
फूल-पत्ती, फल छुआ
जो मुझे छुने चली
हर उस हवा का आँचल छुआ
प्रहर कोई भी नहीं बीता अछुता...
आग के संपर्क से
दिवस, मासों और वर्षों के कड़ाहों में
मैं उबलता रहा पानी-सा
परे हर तर्क से
एक चौथाई उमर
यों खौलते बीती बिना अवकाश
सुख कहाँ
यों भाप बन-बन कर चुका,
रीता, भटकता
छानता आकाश
आह! कैसा कठिन
कैसा पोच मेरा भाग!
आग चारों और मेरे
आग केवल भाग!
सुख नहीं यों खौलने में सुख नहीं कोई,
पर अभी जागी नहीं वह चेतना सोई,
वह, समय की प्रतीक्षा में है, जगेगी आप
ज्यों कि लहराती हुई ढकने उठाती भाप!
अभी तो यह आग जलती रहे, जलती रहे
जिंदगी यों ही कड़ाहों में उबलती रहे ।

गुरुवार, 26 जून 2014

Dimag Lagai Sasura #1




घर / इंस्टी में बैठे बैठे बोर हो रहे है ? क्या आपको ऐसे सवाल अच्छे लगते है जो आपके दिमाग के पुर्ज पुर्जे को हरकत में ला दे ? क्या आप दिमागी  मेहनत करके अपने समय का सदुपयोग करना चाहते है ? तो फिर आप सही पोस्ट पढ़ रहे है , पेश है आप के लिए कुछ सवाल।  इन प्रश्नो का उत्तर आप कमेंट बॉक्स में किसी भी भाषा में  दे सकते है।

1    पृथ्वी पर  ऐसी खास जगह मौजूद है जहाँ अगर आप एक मील दक्षिण चलने के बाद एक मील पूर्व  चले और फिर एक मील उत्तर चले तो आप अपने आप को उसी जगह पाएंगे जहाँ से आपने अपनी यात्रा आरम्भ की थी !! क्या आप ऐसी जगह के बारे में सोच सकते है ? क्या ऐसी एक  से ज्यादा जगह हो सकती है?


2     आप एक सड़क जंक्शन  पर हो , एक रास्ता आपको  गंतव्य  तक  ले जाता है जबकि दूसरा एक ऐसी जगह जहाँ आपका मरना निश्चित है। जक्शन पर तीन लोग मौजूद है एक सदैव सत्य बोलता है , एक हमेशा झूठ बोलता है और एक झूठ और हकीकत के बीच बारी  बारी से झूलता है। लेकिन ज़ाहिर है आपको नहीं मालूम की  कौन सा व्यक्ति क्या है (सच्चा , झूठा )  . आप रास्ते  का पता लगाने के लिए २ प्रश्न पूछ सकते है , आप क्या पूछेंगे ?


3    १०० चींटियाँ एक आयामी सतह ( १ डिमेन्शंसनल प्लेन )  पर आगे बढ़ रही है।  सभी एक ही गति से  चल रही है , कुछ पॉजिटिव x एक्सिस तरफ तो कुछ नेगेटिव x एक्सिस तरफ। एक टक्कर दो चींटियों के बीच होता है तो दोनों चींटियों की  दिशा बदल जाती है। अगर आप को प्रत्येक चींटी की चलने की दिशा मालूम है तो आप किस प्रकार टकराव की संख्या की गणना कर सकते है ?


4    एक  मेज़ पर १०० सिक्के मौजूद हैं, जिन्हेँ  अगर ऊपर की ओर से देखें तो ५० सिक्के हेड फेस  कर रहे है और बाकी ५० टेल फेस  कर  रहे है। आप  की आँखों  पर पट्टी बंधी है  और आप  किसी  भी  तरीके से , मसलन रगड़कर इत्यादि , सिक्के की स्तिथि को ज्ञात  नहीं  कर सकते। आपको इन १०० सिक्को  को २ हिस्सों में इस प्रकार विभाजित करना है की  दोनों  हिस्सों में टेल फेस करने वाले सिक्कों  की संख्या बराबर हो।

बुधवार, 25 जून 2014

रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद

राष्ट्रकवि की उपाधि से सम्मानित रामधारी सिंह 'दिनकर' की एक अद्भुत कविता : 'रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद' । जीवन की अनेक दृष्टियोँ को ध्यान मेँ रखकर इस कविता को पढ़ने से कई सत्य एवं लक्ष्य सामने आते हैँ। कितनी खूबसूरती के साथ दिनकर जी ने मानव के भावों एवं स्वप्नों का इस कविता में वर्णन किया है :

रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद,
आदमी भी क्या अनोखा जीव है ।
उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता,
और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है ।
जानता है तू कि मैं कितना पुराना हूँ?
मैं चुका हूँ देख मनु को जनमते-मरते ।
और लाखों बार तुझ-से पागलों को भी
चाँदनी में बैठ स्वप्नों पर सही करते।
आदमी का स्वप्न? है वह बुलबुला जल का
आज उठता और कल फिर फूट जाता है ।
किन्तु, फिर भी धन्य ठहरा आदमी ही तो
बुलबुलों से खेलता, कविता बनाता है ।
मैं न बोला किन्तु मेरी रागिनी बोली,
देख फिर से चाँद! मुझको जानता है तू?
स्वप्न मेरे बुलबुले हैं? है यही पानी,
आग को भी क्या नहीं पहचानता है तू?
मैं न वह जो स्वप्न पर केवल सही करते,
आग में उसको गला लोहा बनाता हूँ ।
और उस पर नींव रखता हूँ नये घर की,
इस तरह दीवार फौलादी उठाता हूँ ।
मनु नहीं, मनु-पुत्र है यह सामने, जिसकी
कल्पना की जीभ में भी धार होती है ।
वाण ही होते विचारों के नहीं केवल,
स्वप्न के भी हाथ में तलवार होती है।
स्वर्ग के सम्राट को जाकर खबर कर दे
रोज ही आकाश चढ़ते जा रहे हैं वे ।
रोकिये, जैसे बने इन स्वप्नवालों को,
स्वर्ग की ही ओर बढ़ते आ रहे हैं वे।