थी तो बस कुछ धुधलीं धुधलीं
काली काली परछाईयां
वैसे जहां भी मैं जाता था
वो अक्सर मेरे साथ होती
और कभी कभी लोगों की भीड़ में
मुझे अकेला छोड़ जाती थी
वहां भी बस लोगों की भीड़ ही थी
बहुत से अपरिचित लोगों की भीड़
बहुत मुश्किल था
खुद से परिचय कर पाना
उसकी जिद पर ही मैं वहां गया
पर वो खुद आई ही नहीं वहां
शायद उसकी प्रकृति ही ऐसी थी
वह डरती थी भीड़ से
मुझे भी बहुत डर है
इस भीड़ में खो जाने का
इस अपार जन समूह में
कुछ गा रहे हैं कुछ रो रहे हैं
कोई जूझ रहा है कोई सो रहा है
अजीब सी चीखें भी सुनाई दी
हर कोई बस अपनी धुन में था
मैं भी इस भीड़ में
अपने को ही पहचान ना पाया
मुझसे मेरा परिचय
करने वाली ही नहीं थी
तभी तो मैं कह रहा हूं
वहां ना मैं था , ना वो थी
-योगेश बिचपुरिया
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