गुरुवार, 7 नवंबर 2013

'पतझड़ '

एक्ज़ाम हॉल में टाइम ख़तम होने के बाद भी अगर आप को बिठाकर रखा जाए तो आप बेशक बाहर निकलने के लिए अधीर होते होंगे ,सब होते हैं ,पर क्या करें अब रूल्स तो रूल्स हैं .

खैर इसी तरह कुछ मेरे साथ हुआ -दिमाग की झुंझलाहट को रोकने के लिए खिड़की के बाहर नज़र घुमाई तो फिर से भाव झरने लगे मस्तिष्क में .....दस मिनट में जैसा दिमाग और आँखों के बीच के तारतम्य से जुड़ता गया ,कुछ कविता जैसा बनता गया ....!!

'पतझड़ ' 

अपना हरापन खो चुके ये पत्ते ,
कुछ 'मन ' मसोसते से जान पड़ते हैं ;
झुर्रियों वाले ,भूरे ,सिकुड़े ,रौंदे ,कुचले ये पत्ते ;
कुछ हैं अभी प्रौढ़ता की ओर जा रहे ,
सो हैं थोड़े पीले से ;

जब ग़लती तले दब जाते हैं ये
हल्का सा शोर मचाते हैं ,
और जब ज्यादा दब जायें तो ;
कहते हैं हम -परे हटो इनसे क्यूंकि
बड़ी कर्कश सी ध्वनि है यह तो ,

दोस्तों ! कुछ सुना सुना सा नही लगता यह वाकया आपको ,
हमारे ,आपके घरों सा ही तो है .

इन दिनों 'उन्ही ' माँ-बाप की आवाज़ बड़ी चुभती है ,
उनकी कराह ,उनकी नाराजगी और गले की ख़राश भी दर्द देती है सर में ,
करती है चिढ़चिढ़ा ;
जनाब ! अब तो समझ ही गये होंगे आप कि वो 'मसोसते मन ' कौन हैं !

लब्बोलुआब है कि हर बसंत का एक पतझड़ आता है ;
काश यह समझते हम ;

नही तो दिन वो भी इक आएगा जब पाएंगे खुद को मसोसते हम 'मन' !! 









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