गुरुवार, 4 दिसंबर 2014

 धर्मेन्द्र  कुमार धीर  ' धरम '  जी निसंदेह ही संस्थान के अग्रणी कवि में से एक है . उर्दू और हिंदी साहित्य में गहरी समझ और शौक रखने वाले  'धरम' जी की  रचनायों में  परिपक्वता और भाषा में उत्कृष्टा काबिलेतारीफ है . आज वाणी के ब्लॉग पर पेश है 'धरम' जी की कुछ उम्दा ग़ज़ले

वक़्त से आगे

मैं जो वक़्त से आगे निकलना चाह रहा था  
हर ओर दीवारें थी न कोई राह मिल रहा था

सारे राहगर मुझसे कब के पीछे छूट गए थे
वक़्त राक्षश के मानिंद आग उगल रहा था

बहुत दूर पर वहां देखा पत्थर पिघल रहा था
मानव बनकर दानव कुछ और उबल रहा था

बारिश में शबनम के साथ शोला गिर रहा था
खेत कभी खिल रहा था तो कभी जल रहा था

पूनम की चांदनी का रंग काला पड़ गया था
औ" अँधेरे में तो सबको सबकुछ दिख रहा था


चंद शेर

1.

तेरे शक्ल का नक़ाब लिए मैं खुद मारा फिरता हूँ
तेरे दुश्मन की गली में मैं यूँ ही आवारा फिरता हूँ

2.

ऐे गर्द-ए-सफर तेरा शुक्रिया
उसके गली की एक निशानी तो साथ है

3.

न जाने किस चमन की खुशबू फैली है मेरी ज़िंदगी में "धरम"
जो सिमट गई तो बिखर गई औ" जो बिखर गई तो सिमट गई

4.

ज़िंदगी कितनी नमकीन है तब पता चलता है
जब सारा मिठास बनकर पसीना बह जाता है

5.

कुछ दर्द मुझसे उधार लो तुम अपनी ज़िंदगी सँवार लो
कुछ ख़ुशी मुझको उधार दो मैं अपनी ज़िंदगी सँवार लूँ

6.

ये कैसी महफ़िल है कि यहाँ हर चेहरा अजनबी है
बस मैं एक फ़क़ीर हूँ और बाकी सब रियासती है

फिर से गुजार लूँ

गुज़रे वक़्त को मैं फिर से गुजार लूँ
बस की आ मेरी जाँ मैं तुमको सँवार लूँ

पा कर तेरी झलक मैं चेहरा निखार लूँ
औ' अपने दिल में तेरी तस्वीर उतार लूँ

रखकर हाथों में तेरा हाथ मैं तुझसे क़रार लूँ
तुम अपनी आदत सुधारो मैं अपनी सुधार लूँ

गिले-शिकवे की बातें बस अभी ही बिसार लूँ
मोहब्बत में न तो तुम उधार लो न मैं उधार लूँ

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