शुक्रवार, 27 जुलाई 2012

आहटें


ये आहटें कुछ कहती हैं 
पर न जाने क्यूँ सुनना 
चाहती ही नहीं मैं 
क्या संदेसा देना है 
उनको, नहीं समझती मैं 

चली आती हैं वो फिर 
भी, जैसे गाने में बजता 
मद्धम सा संगीत हो,
जैसे मन के पटल पर 
रंगों की हलकी सी छींट हो,
पर उसे मिटा नहीं सकती मैं.

जुगनुओं सी इनकी भाषा है ,
आते- जाते, पल भर को,
अंधेरों में, जलती-बुझती ,
इशारे तो कुछ करती हैं,
इनकी पहेलियाँ मगर, 
सुलझाने को ठहरती नहीं मैं.

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें