मंगलवार, 11 सितंबर 2012

कोटा ... हमेशा युवा !!


कोटा, एक ऐसा शहर जिसे रास्ते से गुज़रते देखा जाए तो वो हमेशा जवाँ लगता है, नए चेहरे लेकिन वही उम्र | जब गौर किया तब पाया ये सच भी है | कोटा आज देश का सबसे बड़ा कोचिंग-हब है | हज़ारों-लाखों विद्यार्थी इंजीनियरिंग-चिकित्सा के क्षेत्रों में प्रवेश पूर्व यहाँ के महाकुम्भ में डुबकी ज़रूर लगाते है|हर दिन वही नज़ारा, सुबह पोहे की दुकानों पर अलसाते बच्चों का जमघट, दोपहर में बैग लटकाए साइकिल - रिक्शा में जाते विद्यार्थी और शाम ढले अपने अपने घरौंदों में बतियाते लौटते वही थके हुए चेहरे | 

वैसे तो कोटा एक संस्कृति समृद्ध शहर है, साथ ही साथ राजस्थान क़ी औद्योगिक राजधानी भी |यहाँ की चित्रकला, शिल्पकला, मसुरिया मलमल, कोटा डोरिया इत्यादि विश्व प्रसिद्ध है और देश की 8% बिजली का उत्पादन भी करता है| (मज़े क़ी बाते यह है कि फिर भी यहाँ बिजली कटौती होती है |) लेकिन जो बात मुझे आकर्षित करती हे वो यहाँ का शिक्षण उद्योग | उद्योग शब्द के प्रयोग के लिए शिक्षाविद मुझे माफ़ करे, परन्तु यह सर्व-मान्य है कि कोई भी यहाँ गुरुकुल नहीं चला रहा | निःस्वार्थ ज्ञान बांटना अब मात्र दंतकथा है |

यहाँ चारों ओर बच्चो कि रेलमपेल है | नन्हे कंधो पर सपनों का बोझ | यदा-कदा खुद की ललक और अधिकांशतया के अभिभावकों का दबाव बच्चों को यहाँ आने को मजबूर कर देता है | कुछ यहाँ के कठिन वातावरण में तपकर कुंदन बन जाते है, बाकी उसी तपिश में राख हो जाते है | ख़्वाबों के मज़बूत महल यहाँ की प्रतियोगी आंधी में ताश के पत्तों से ढह जाते है और ये आंधी बचपन भी कब उड़ा ले जाती है, एहसास ही नहीं होता | यहाँ एक ओर  हर गली-मोहल्ले में खुले शिक्षण संस्थान, स्टेशनरी की दुकाने आपको पढने को आमंत्रित करती है, वही बगल में ही खुले साइबर कैफे, गेमिंग हब 'मेनका' समान आपको फुसलाते भी है| ऐसे में १४-१५ साल के बालक /बालिका से संयम की अपेक्षा रखना तो सरासर बेईमानी होगी |
शिक्षा के सौदागर हर नुक्कड़ पर अपनी दुकान लगाये बैठे है | कुछ बड़े आसामियो के सजे-धजे शो-रूम भी है | व्यापार धड़ल्ले से चलता है | बाहर खड़ी साइकल की मीलों लम्बी कतारें  ही मुनाफे का सबूत देने को काफी है | इन्ही की टुकड़ो पर कई और आय के साधन पनपे है |  भोजनालय (मेस ), छात्रावास, पेइंग गेस्ट, परिवहन, स्कूल, साइकल , सिगरेट, शराब | पूरा तंत्र अभिभावकों की गाढ़ी कमाई को उनसे जुदा करने में लगा है |विद्यार्थियों का बचपन बेच कर ये शहर अपनी उम्र बढ़ा रहा है| जबकि परिणाम की कोई गारंटी नहीं | भारत में शिक्षा के व्यापार का इससे बेहतर उदाहरण शायद ही देखने को मिले | फिर भी प्रवाह जारी है | कुछ को यहाँ डूबने से मुक्ति मिल जाती है, अधिकांश असफल होकर आगे भी दुनिया के व्युह्चक्र में छटपटाते रहते है |
अगर कोचिंग से आगे बढ़कर देखे तो कोटा के भी अपने अलग रंग हे और निराले अंदाज़ | यहाँ के निवासियों में एक अल्हड़पन है, छुपी हुई उद्दंडता है, कोई लाग-लगाव नहीं, स्पष्ट वचन, दिल की बात जुबां पर | लोगों क़ी सुबह यहाँ देरी से होती है, और दोपहर में सभी दुकाने बंद कर सुस्ताते रहते है | लेकिन शाम ढले रौनक देखने लायक होती है |

कोटा की एक और ख़ास बात है| यहाँ नए बसे हिस्सों में जितने नाले है (जो कि बहुत अधिक है), उतने ही  मैदान, उद्यान, बगीचे भी | क्रिकेट, फुटबाल खेलते बच्चों का शोर शाम ढले चरम पर | सांध्य काल में  चम्बल तट पर बने कई उद्यानों में हर उम्र  के हँसते - खिलखिलाते लोग दिखने लगते है | प्रदूषित चम्बल नदी तट से ऊँची-ऊँची चिमनियों का नज़ारा, पर्यावण प्रेमियों को छोड़ कर एकबारगी सब को लुभा लेता है | मंदिरों की घंटिया वातावरण में रूहानियत सी घोल देती है | रात को यदि चाय - फास्ट फ़ूड जोइंट्स पर बच्चों क़ी सामन्य से अधिक भीड़ दिखे तो समझ लीजियेगा, ज़रूर अंदर दूरदर्शन  पर क्रिकेट मैच चल रहा है |

किले के परकोटे से सटकर बने रंगे - बेरंग मकान , भीतर शहर में कपड़ों की दुकानों की कतारें, नए बनते माल्स की चकाचौंध, प्याज- धनिये से सजे स्वादिष्ट इन्दौरी पोहे, 'अमर पंजाबी ढाबे' का जायका, ईटोस क़ी पेस्ट्री, चम्बल किनारे शाम ... कोटा के अपने रंग, ढंग और स्वाद है | पर अगर आप विद्यार्थी है तो ज़रा संभलकर इसमें खोइयेगा |       
अंत में सलाम करता हूँ उन सभी को जिन्होंने यहाँ सीलन भरे छोटे छोटे कमरों में २-३ साल गुज़ारे, उम्मीद करता हूँ आज आप सभी ए.सी कमरों में आराम फरमा रहे हो  |

1 टिप्पणी:

  1. अहा....! कोटा की यादें ताज़ा हो उठीं.....एकदम सजीव चित्रण किया है ऋषभ....आपने.....एकबार फिर.....कोटा और बंसल के दिन याद आ गये....पर फिर भी न जाने क्यूँ.....कभी कभी लगता है......अगर आई.आई.टी की ज़िन्दगी में कुछ बात है.....तो कोटा और कोचिंग के वो दिन भी शानदार थे.....क्यूंकि वहां हम पढ़ते तो थे.......एक उद्देश्य के लिए.....पहली पहली बार १४-१५ साल के हम बच्चे घर से अलग रहे......और....खुद सब सीखा.....शायद.....इसलिए....आई.आई.टी में शुरुआत में दिक्कत नही हुई......सच में वो पोहा....:) सुबह का वो वही एक सा इन्दौरी पोहे का नाश्ता......पर हमेशा अलग स्वाद देता.......:) अनेकों ऐसी यादें हैं....कोटा की....:):)

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