शुक्रवार, 14 सितंबर 2012

तुम हो, यहीं-कहीं हो...




आखें जो मैंने बंद कर ली,
ऐसा लगा की तुम हो
खुशुबू बिखेरे है इक कली
ऐसा लगा की तुम हो...यहीं कहीं हो |
हवाएं भी रुक-रूककर इशारा दे रही हैं
कि तुम हो, यहीं कहीं हो...|

धडकनें ये क्यों बढ सी गयी हैं मेरे दिल की
थम सा क्यों गया है ये कारवां समुन्दर का
क्यों रुक गयी आवाज़ लहरों के टकराने की?
क्या इनको भी इल्म हो गया है तेरे आने का...?

ये तेरा मुखड़ा है या फिर,
चमकते चाँद का टुकड़ा है कोई 
कि मेरी बंद आखें भी ये
जिसके दीदार को तरस रही हैं
अंदेशा दे रहीं हैं तेरे होने का
कि तुम हो, यहीं कहीं हो...|

ये तेरे होंठ हैं या फिर
गुलाब की पंखुडियां,
जो इशारा दे रही हैं इन्हें छूने का
बाहों में भरके जिन्हें पीने का
कि जैसे पीता है फूलों का रस
आवारा सा भंवरा कोई,
एहसास दिलाता है, अपने होने का
कि मैं यहीं हूँ, तुम यही हो, यही कहीं हो |

तेरी आखों की झील में,
ऐसा डूबा था तब मैं,
निकल नहीं पाया अब तक
कि तुमने क़ैद जो कर लिया है मुझे
ये हवाएं जो आज यहाँ भी हैं, तेरी खुशबू लिए
कल भी वहां थी, तुम थी, मैं था,
और ये हरितमा से लदा हुआ मधुबन भी,
गवाही दे रहीं है, अपने मिलने की....|

तेरे उस नीले दुप्पटे को जिसे,
हवाओं ने ही ला रखा था मेरे चेहरे पे
कि चुपके से कह गया कोई बात मेरे कानों में
तुमने भी तो कहा था अपनी आँखों से कुछ
जैसे आसमां में तारा कोई टिमटिमाये
और अपनों से प्यारा कोई दिल में बस जाये
समझ नहीं पाया था मैं तब, या फिर
अनजान बना रहा, गैरों की तरह...?

तेरी तस्वीर को मैं अपनी आखों में लिए
जा बैठा शांत, अकेले में,
खुद से ही पूछ बैठा कि तुम कौन हो..?
तुमसे ही मुझे अपने होने का एहसास है 
जैसे जान से भी प्यारा कोई, होता पास है
फिर चलीं गयीं तुम कहीं दूर..बहुत दूर..
नदिया के पानी कि तरह,
खो गयी हो सागर में..उस भीड़ में...|

ना तेरे नाम का पता, ना अब तेरा,
फिर भी तुझे ढूंढे जा रहा हूँ मैं 
इस उम्मीद से कि मिलोगी कहीं,
जैसे मिल जाता है चाँद, अपनी चांदनी से
लहरें, अपने सागर से,
कि बस गयी हो मेरे दिल में तुम कहीं,
है दिल को यकीं, तुम यहीं जो, यहीं कहीं हो...|
आखें जो बंद कर ली है मैंने,
ऐसा लगा की तुम हो...यहीं कहीं हो ||

 ---------------सौरभ (सात्विक)

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