शुक्रवार, 7 सितंबर 2012

तन्हा सा

इस शहर में तन्हा सा क्यूँ हूँ
दौड़ती भीड़ में थमां सा क्यूँ हूँ

प्रतिस्पर्धा में सिर उठाती इमारतें
इतनी ऊँची कि सांस भी थक जाये
इनकी तरह इनमें बसते लोग
पत्थर से, प्रतियोगी से, हांपते से

कोल्हू के बैल जैसी पट्‍टी बंधी आँखों से
दिन रात के पहिये में घूमती
वक्त के व्यस्त यातायात में भागतीं
टकराती, टूटती, मर जाती सी जिन्दगीयाँ

पुराने लोगों की धुंधली सी यादें
चेहरे पर पुते रंगों से होती उन्नति
नये बनने की चाह में नयी सी बातें
विचारों की उमस मे कपड़ों की अभिव्यक्ति

क्या मैं नहीं हो पाया इसके काबिल
ये शहर मेरी सोच से है कहीं आगे
सन्नाटों में भी चीखें है शामिल
अशान्त सा मन कभी सोये कभी जागे

आबाद इस शहर में हर कोई आजाद
ख्यालों की जंजीर में बंधा सा क्यूँ हूँ
इस शहर में तन्हा सा क्यूँ हूँ
दौड़ती भीड़ में थमां सा क्यूँ हूँ 

- योगेश बिचपुरिया 

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