मंगलवार, 16 अक्तूबर 2012

पापा

पापा के नाम....ये कविता!

ये टुकुर टुकुर क्या देखती हो?
अच्छा चलो, एक खेल खेलते हैं...तुम मझे देखती रहो, मैं तुम्हे...
और इन काली बड़ी आँखों में तुम्हारी, खो जाऊं मैं.....
अरे! तुम तो हँसने ही लगी..बदमाश!!

इन किलकारियों पर तो जान न्योछावर मेरी..
एक तरफ है दुनिया, और दूसरी तरफ तुम्हारा ये चेहरा ...
लगता है सब छोड़-छाड़ के, बीएस तुम्हे ही देखता रहूँ दिन भर...
या फिर इस पल को सदा के लिए थाम लूँ..

तुम्हे पता है, तुम्हारे ये गोल-मटोल गाल मेरे जैसे हैं..
और बड़ी बड़ी ये आँखें बिलकुल तुम्हारी माँ जैसे....
उफ्फोह...अब अंगूठा निकाल भी लो मुँह से..
भूख लगी है तो बताओ न!....दूध कि बोतल यहीं तो है..

अब चलो, सोने का वक़्त है..
आ जाओ मेरे सीने में, लोरी सुनाता हूँ तुम्हे...राजकुमारी वाली!
और जब मैं चला जाऊं, माँ को ज्यादा परेशान मत करना...समझी!
अब आराम करो, शाम को फिर से खेलेंगे...सो जाओ राजकुमारी......सो जाओ....

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