सोमवार, 8 अक्तूबर 2012

अस्तित्व का अभिप्राय


कुछ गुमसुम सी थी मैं, थी कुछ हैरान सी ...
 कुछ थी कशमकश में,ज़रा ज़रा परेशान सी ...
पर पल भर में ना जाने कहाँ से मेरी  अक्स मेरे सामने आ खड़ी  हो गयी ....

पूछने लगी  कि भला इस प्यारी सी दुनिया ने ऐसा क्या कर दिया 

कि मैं हूँ ऐसी चुपचुप बुझी -बुझी सी ...
तो बोली मैं कि सोचती हूँ शायद कुछ ज्यादा ही कभी -कभी...
तो बस ऐसे ही सोच रही थी अपने अस्तित्व के बारे में
कि क्या हूँ मैं ,क्यूँ हूँ मैं ,आखिर हम से से हरेक क्यूँ ही है!
तो वह मंद मुस्कराहट अपने अधरों पर खिलाये बोली -

तो तू इस गुत्थी में उलझी हुई है स्पर्श!!

जीवन के अर्थ को ढूंढती तू ,इसके अभिप्राय  को खोजती तू
फिर कुछ  धीमे से बोली कि उस सर्वव्यापी का ही तो है अंश;

मैं बोली कि अरे वो तो मैं जानती हूँ खूब 

पर आखिर मुझे इस धरती पर भेजा ही क्यूँ गया 
तब बोली वह  रे अधीर !

हर एक को भेजा है भगवान् ने किसी हेतु के लिए

उस आत्मा की शक्ति को देखते हुए
उस आत्मा की काबिलियत को परखते हुए ,
उसने दिए हैं हरेक को काम कुछ ख़ास !

जिसे पूरा करना ही है उसे 

कर्मों के इस सदैव गतिमान चक्र को गति भी देना है उन्हें
सृष्टि के आरंभ से जो चली आ रही है 
वह अनंत प्रवाहमान कर्म-सरिता ही इस आत्मा को ले जाती है जन्म -जन्मान्तर की यात्रा पर 

जो किया है उसका फल तो मिलना ही है उस आत्मा को 

खुद अवतार रूप में आके भगवन भी नही रहे इससे इससे अछूते 
जो भी किया उन्होंने किया मानव होने के बूते 
क्यूंकि सृष्टि का यह आवर्तन जिस क्षण गया रुक 
तब विनाश ही विनाश होगा सब ओर 
उसके इस एकलाप को मैं सुन रही थी एकदम ध्यानमग्न होकर 
पर मुखमंडल पर था एक संतुष्टि का भाव 
पर शायद मेरी जिज्ञासु प्रवृत्ति मुझे अभी भी कहीं न कहीं रोक रही थी
और मेरे माथे पर पड़ी सलवटें और मेरी धीरे से भरी गयी हामी 
शायद इसी की साक्षी दे रहे थे ....
कुछ पूरा हुआ तो कुछ बाकी रहा यह कौतूहल कि 
भला क्या है मेरे अस्तित्व का अभिप्राय !

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