मंगलवार, 2 अक्तूबर 2012

चरसी... (Vaibhav D Sambre)


मैं तो ठहरा चरसी...
मुझे बाकी दुनिया से क्या काम...
पीछे छुट गए अब सब..
साम दंड भेद और काम..
मैं तो ठहरा चरसी...
मुझे बाकी दुनिया से क्या काम...
था वो जोश जवानी का..
या था मेरा खून गरम...
या शायद उस जिंदगी से..
हार गया था मेरा मन...
हाथ में ली थी मैंने चीलम..
उस धुंए से मिला था मुझे..
एक अजीब सा जोश और आराम..
मैं तो ठहरा चरसी...
मुझे बाकी दुनिया से क्या काम!
वजह मिलती रही..
मौके बढ़ते रहे...
एक बार में छोड़ने के वादे..
उस धुंए में ही घुलते रहे..
शायद उन दोस्तों में हो रहा था..
ऊँचा मेरा नाम...
मैं तो ठहरा चरसी...
मुझे बाकी दुनिया से क्या काम!
कुछ दिनों बाद ये एहसास हुआ..
बिना धुंए के जीवन निरास हुआ..
कहीं ना अब लगता था मन..
नशे बिना मुश्किल हुए नित्य कर्म..
चाहे अनचाहे बन बैठा मैं..
उस नशे का गुलाम..
मैं तो ठहरा चरसी...
मुझे बाकी दुनिया से क्या काम!
क्या हुआ जो अब..दोस्त चले जाएँ बिन बतियाये...
क्या हुआ जो अब मैं दौड़ ना पाऊँ खुलकर..
क्या हुआ जो अब "वो" भी मुझे आँखे चुराए..
क्या हुआ जो अब अधूरा से लागे माँ का आँचल..
क्या हुआ जो अब कर दिया...मैंने जमीर नीलाम..
मैं तो ठहरा चरसी...
मुझे बाकी दुनिया से क्या काम!
अपनी नज़रो में गिर कर ही तो..
शायद ऊँचा किया है मैंने अपना नाम..
मैं तो ठहरा चरसी...
मुझे बाकी दुनिया से क्या काम!
कभी कभी मन से..
ये जिजीविषा उठती है कि...
वापस आ जाये वो पहली घडी...
और कर दूं उस चीलम को नकारा
क्योंकि..
वापस आना चाहता हूँ...ये धुआं मुझे रोक रहा..
वापस जीना चाहता हूँ..ये फंदा मुझे बाँध रहा...
बनना चाहता हूँ वो बेटा...पापा को जिसपे गर्व रहा..
बनना चाहता हूँ वो भाई..बहन का जो दुलारा रहा..
मैं तो ठहरा चरसी यारों...हाथ तो बढ़ाना जरा..
मैं तो ठहरा चरसी यारों..दुनिया से रूबरू करना जरा..
मैं तो ठहरा चरसी यारों..तनिक जीना मुझे सिखाना जरा..
तनिक जीना मुझे सिखाना जरा!!!



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