रविवार, 30 सितंबर 2012

नाराज़गी




तुम्हारी नाराज़गी ... उफ़्फ़ !
घटा देती है खूबसूरती तुम्हारी |
समझने में ये तुम्हे,
लगे शायद कुछ और दिन ।

चैत के महीने में पावस की तरह,
अंकतालिका में गणित के अंकों की तरह,
या नगरपालिका के बाग़ में उगी खरपतवार की तरह;
नहीं फबती तुम पर ये, कतई !

दे कर खुद को दोष,
ईश्वर की सृष्टि को कम सुन्दर कर देने का,
भर जाता हूँ, अन्दर तक ग्लानि से उतना;
जितना हुआ करता था,
गर्मी की छुट्टियों में होमवर्क न कर पाने पर !

मत होना यों अगली दफ़ा नाराज़
ज्यों पड़ जाती हैं सिलवटें शर्ट पर
ताकि ना लिखनी पडे,
मुझे एक और कविता,
तुम्हारी नाराज़गी के प्यार में पड़कर !

- जय

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