सोमवार, 12 नवंबर 2012

दीपदान-केदारनाथ सिंह

























जाना फिर जाना
उस तट पर भी जा कर दिया जला आना
पर पहले अपना यह आँगन कुछ कहता है

उस उड़ते आँचल से गुड़हल की डाल
बार-बार उलझ जाती हैं
एक दिया वहाँ भी जलाना

जाना फिर जाना..

एक दिया वहाँ जहाँ नई-नई दूबों ने कल्ले फोड़े हैं
एक दिया वहाँ जहाँ उस नन्हें गेंदे ने
अभी-अभी पहली ही पंखड़ी बस खोली है
एक दिया उस लौकी के नीचे
जिसकी हर लतर तुम्हें छूने को आकुल है
एक दिया वहाँ जहाँ गगरी रक्खी है
एक दिया वहाँ जहाँ बर्तन मँजने से
गड्ढा-सा दिखता है
एक दिया वहाँ जहाँ अभी-अभी धुले
नये चावल का गंधभरा पानी फैला है
एक दिया उस घर में -
जहाँ नई फसलों की गंध छटपटाती हैं
एक दिया उस जंगले पर जिससे
दूर नदी की नाव अक्सर दिख जाती हैं
एक दिया वहाँ जहाँ झबरा बँधता है
एक दिया वहाँ जहाँ पियरी दुहती है
एक दिया वहाँ जहाँ अपना प्यारा झबरा
दिन-दिन भर सोता है
एक दिया उस पगडंडी पर
जो अनजाने कुहरों के पार डूब जाती है
एक दिया उस चौराहे पर
जो मन की सारी राहें
विवश छीन लेता है
एक दिया इस चौखट
एक दिया उस ताखे
एक दिया उस बरगद के तले जलाना

जाना फिर जाना
उस तट पर भी जा कर दिया जला आना
पर पहले अपना यह आँगन कुछ कहता है
जाना फिर जाना!

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