शनिवार, 17 नवंबर 2012

अंतर्मंथन

वक्त हो गया खुद से मिले हुये
 खुद से मिलना  मुश्किल लगता
समय नहीं मिलता है या
मैं खुद से ही नहीं मिलना चाहता
बहुत से प्रश्न हैं  उसके
कौन हो, क्या है तू चाहता ?
और मैं अनुतरित
कैसे मिलने की हिम्मत जुटाता
थाली में चाँद दिखा कर
हर बार ऊंचाई का एहसास दिलाता
अब वो वयस्क हो गया
पहले की तरह कैसे बहलाता
हर छल को समझने लगा
कब तक नयी कहानी सुनाता
जान गया है वो मेरी कमजोरी
कुछ नहीं है जो मैं कर दिखा पाता
कबसे रास्तों में घूम रहा
एक ही जगह बार बार पहुँच जाता
इतने सालों  में कुछ हुआ तो
सिर्फ समय चला और मैं ठहर सा जाता
आज सोचा उससे मिल ही लें
कहने सुनने से ही  कुछ ताजा लगता
उलझा देख मुझे वो बोला
कलम उठा के क्यूँ कुछ नहीं लिखता

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