शनिवार, 17 नवंबर 2012

कली को खिलते देखा

मैनें  कली  को  खिलते  देखा
दुनिया  की  हवाओं  को  सहकर  फूल  बनते  देखा

वो  एक  छोटी  सी  नाजुक , शरमाई   हुई
बाह्य आवरण  के  संरक्षण  में  छुपी  एक  कली  थी
उस  बाग  के  माली  की  मेहनत , लगन
और  पौधे  की  आरजूओं  के  बीच  पली  थी

फिर  उसने  अपने  आवरण  को  तोड़  दिया
चारों  तरफ  के  वातावरण  को  मोहित  किया
अपनी  खुशबू  से  बाग  को  महका  दिया
रंग  रूप  से  सबको  सम्मोहित  किया

उसकी  बंद  परतें  खुलने  लगी  थी
उसके  अंग  बहकने  लगे  थे
उसकी  अंगडाई में  अजब  सी  मदहोशी   थी
भौरें भी  उस  पर  चहकने  लगे  थे

उसके  मन  में  भी  था  गहरा  सागर
जिसमें  बसे  भाव  अब  उमड़ने  लगे  थे
पर  माली  के  दिल  की  कौन  जाने
कब  फूल  पौधे  से  बिछड़ने  लगे  थे

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