(मेरे एक मित्र की एक बहुत ही अच्छी कविता साझा करता हूँ ।)
घड़े को सर पर रखकर ,
रेत के धोरों में पानी तलाशती,
बंजारने ..
वो रेत के बदन पर पड़ते
उन सूखे पैरो के निशान
एक करवट लेकर
हर निशानी सोख लेता है रेगिस्तान
उसकी प्यास इसी से बुझती है शायद...
ये खाली कलासियाँ और ये बंजारने
खाली ही गूंजती रहती है हवाओ में
और घोलती रहती है प्यासा सुर ........
जो इस सूरज का ताप कम करता है ..
जो इनके पैरों के छालों की जलन कम करता है...
जिंदगी भी उसी मरुस्थल सी है
हम सब बंजारने ...
ढूँढ़ते रहते है रेगिस्तान में पानी
- अनिल जीनगर
"तलाश"
वो दोपहर को धूप में
घड़े को सर पर रखकर ,
रेत के धोरों में पानी तलाशती,
बंजारने ..
वो रेत के बदन पर पड़ते
उन सूखे पैरो के निशान
एक करवट लेकर
हर निशानी सोख लेता है रेगिस्तान
उसकी प्यास इसी से बुझती है शायद...
ये खाली कलासियाँ और ये बंजारने
खाली ही गूंजती रहती है हवाओ में
और घोलती रहती है प्यासा सुर ........
जो इस सूरज का ताप कम करता है ..
जो इनके पैरों के छालों की जलन कम करता है...
जिंदगी भी उसी मरुस्थल सी है
हम सब बंजारने ...
ढूँढ़ते रहते है रेगिस्तान में पानी
- अनिल जीनगर
bahoot khoob anil bhai
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