शनिवार, 16 मार्च 2013

नारी : मजबूर या दोषी ?



 
 आज जहां समाज में नारी बहुत ही मजबूर प्रतीत होती है और उसकी मजबूरी का सम्पूण दारोमदार पुरुष समाज पे डाल दिया जाता है, मैं भी इस समाज का एक अंग होने के नाते ये लेख लिखने के लिए विवश  हूँ !
कहा जाता है, माता - पिता ही बच्चे के पहले अध्यापक होते हैं , वो जो घर से सीखता है वही व्यवहार वो समाज में रह के अपनाता है, दुसरे शब्दों में कहा जाये तो समाज लोगों के बचपन में सीखे हुए संस्कारों का ही आईना होता है । तो आज समाज से पुरुषत्व क्यूँ गायब होता जा रहा है ? बहनों की इज्ज़तें लुट रही हैं , भाई लड़ना नहीं चाहते ! माताओं को बीच बाज़ार चार बदमाश परेशान करके चले जाते हैं , बेटे विरोध करने की जगह लडकियां बने घूम रहे हैं ! ये समाज की आज़ादी है या कायरता ?? और अगर कायरता है तो किसने बनाया है इस समाज को कायर ? घूम फिर के सारी बातें परिवार की उस प्राथमिक सीख पे ही केन्द्रित हो जाती हैं जिसके जिम्मेदार एक बच्चे के माँ- बाप होते हैं , किन्तु समाज का ये बदलाव नया नहीं है और अगर कुछ समय पहले का विश्लेषण करें तो पाएंगे बच्चे अधिकांश समय अपनी माँ के साथ बिताते थे और आज भी अधिकांश घरों की यही स्तिथि है ।
अगर आपको याद हो तो अपने इस समाज में नारियों की शिक्षा प्रारभ ही इसलिए हुई थी कि, वो पढ़- लिख कर एक नए समाज को सही दिशा दें ! उनके बच्चे जो कल का भविष्य हैं, उन्हें उचित संस्कार और ज्ञान दें , उनकी जरूरतों को समझें , उनके लिए एक प्रेरणा स्त्रोत्र बनें । किन्तु, आज जो सक्षम हैं वो स्त्रियाँ समाज कि इस महत्वपूण जिम्मेदारी को उठाने के लिए तैयार नहीं हैं । शिक्षा ग्रहण करते करते उनके खुद के सपने समाज के विकास के उस आवश्यक कार्य पर हावी हो जाते हैं और समाज को शिक्षा देने के लिए ज्यादर बस दो तरह के ही माहौल मिलते हैं ।
एक! जहां माँ को कभी अपनी बात कहने का मौका नहीं मिला , वो अशिक्षित रही , घरेलु हिंसा का शिकार बनी, और अपना सारा लाड़- प्यार अपने बच्चे पे उड़ेल दिया । पर बच्चे को सीखने को क्या मिला - जो दब जाये उसे दबाने का हुनर? बेशक इस सीख में उसका पिता भी बराबर का जिम्मेदार है और दोषी भी किन्तु, माँ शायद उसे अन्याय के खिलाफ खड़ा होना सिखा सकती थी पर उसने उसे जो दिया वो है - "डर", " समझौता " । साफ़- साफ़ कहा जाये तो ये वो बच्चे हैं जो बड़े हो कर अपने से कमजोर को डरायेंगे और जब कोई इनपे हावी हो जायेगा तो ये डर के उससे समझौता कर लेंगे । यानी इनकी सारी  बहादुरी कमजोरों के लिए है , अपनी माँ जैसी नारियों के लिए भी शायद किन्तु, रास्ते पे चलती लड़की को छेड़ने वालों को रोकने की हिम्मत इनमें नहीं है । ये अपने क्रोध से समझौता कर के आगे बढ़ जाते हैं क्यूंकि बचपन में माँ ने अपने लाड़ प्यार की वजह से इन्हें कभी लड़ने झगड़ने न दे कर नपुंसक बना दिया , उसके लिए वो प्यार था उसके एक मात्र सहारे के लिए ! "मेरे बच्चे! मेरे लाल ! स्कूल में नहीं झगड़ते । तुझे भी क्या अपने पापा की तरह बनना है ।" " पर माँ उसने मेरी पेंसिल तोड़ दी ! " " कोई बात नहीं ! माँ तुम्हारे लिए नयी पेंसिल ला देगी " ये एक मामूली सी बातचीत भी समाज को किस तरह पतन की तरफ ले जा सकती है शायद उसको अंदाज़ा ही नहीं होगा ! पिता का ध्यान न देना स्कूल में बच्चों की हरकतों पे गौर न करना भी इतना ही महत्वपूण है पर अगर समाज में समस्या नारियों को ज्यादा है तो सुधरने की जिम्मेदारी भी उनकी होनी चाहिए !
दूसरी तरफ हमे मिलती हैं ऐसी माँ जिन्हें शिक्षा भी मिली , आज़ादी का माहौल भी ! उनके लिए तो बातें और भी सीधी थीं दूसरों को मत देखो, तुम्हे जो करना है वो करो पर इसकी अति भी समाज को ले डूबी । उन्होंने बच्चो की जिम्मेदारी (समाज के भविष्य की जिम्मेदारी ) से ज्यादा महत्वपूण खुद के भविष्य को समझा और उनसे उनके बच्चों ने भी । दूसरों की फिकर मत करो और अपना भविष्य बनाओ, समाज की चिंता तो वो पहले ही छोड़ चुके थे तो किसी राह चलती युवती के लिये किसी से लड़ के अपने भविष्य को खतरे में डालना तो उनके लिये असंभव ही था , उनकी माँ ने उन्हें बचपन में ही सिखा दिया था " तुम्हारी फ़िज़ूल की बातों के लिये मेरे पास वक्त नहीं है, मुझे ऑफिस जाना होता है और भी बहुत से काम हैं ! आगे से कोई लड़ाई - झगड़े की खबर मिली तो बोर्डिंग में भेज देंगे " "पर मेरी बात तो सुनो... " वक्त के ये कमी समाज को इस मुकाम पे ले आएगी शायद उनकी शिक्षा उन्हें ये समझाने में असफल रह गयी ।
समस्या तो अब और भी बढ़ गयी है क्यूंकि ये कहानी एक पीढ़ी पहले की है , अब वो बच्चे बड़े हो गये हैं और अपने बच्चों को वही शिक्षा देने लगे हैं- " तुम्हे वहां पढने भेजा है लड़ने नहीं , जिसकी समस्या है वो खुद देख लेगा। तुम्हे नवाब बनने की जरूरत नहीं है !" और इसी समाज की नारी जब बीच बाजार अपराधियों के सामने हिजड़ों की फौज देखती है तो गुहार लगती है कि, क्या इस समाज में कोई मर्द नहीं है ?
मर्द !! मर्द को मर्द रहने ही कहाँ दिया आपने ! और अब उसके पुरषार्थ को ललकारती हो । अपने भाई , बेटे को कब आपने जगाया , डांटा, मारा, समझाया जब वो बीच सड़क एक औरत को असहाय देख कर खामोश  लौट आया था खुद को बेबस समझ कर ! आप पढ़ी-लिखी औरतों ने कब अपने बेटे को ज्ञान दिया की खुद से ज्यादा महत्वपूण भी कुछ है इस समाज में, आप तो बता सकतीं थीं उसे कि, तेरी माँ पढ़ी लिखी है कोई समस्या आएगी तो मैं देख लूँगी पर, तू कोई अपराध अपनी आँखों के सामने मत होने देना !
एक समय था जब अशिक्षित माँ भी अपने देश के लिये अपने बेटों को कुर्बान कर देती थी , इतना ज्ञान तो उन्हें भी था । हमने शिक्षा भले ही पा ली हो लेकिन उसकी मूलभूत आवश्यकता से हम बहुत दूर हो गए हैं, शायद ! पुरुष और स्त्री की इस आपसी प्रतिस्पर्धा में हमने समाज को खो दिया है ! 
                                                                    ............... शक्ति शर्मा

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