बुधवार, 20 मार्च 2013

इस्लाम से पुरानी है पाकिस्तान की तारीख

Image


इस्लामी जम्हूरिया पाकिस्तान की तारीख़ हिन्दुस्तान से बहुत पुरानी है, बल्कि इस्लाम से भी पुरानी है। जब आठवीं सदी में मुहम्मद बिन क़ासिम इस्लाम फैलाने बार-ए-सगीर तशरीफ लाए तो ये जान कर शर्मिंदा हुए कि यहां तो पहले ही इस्लामी रियासत मौजूद है।
यहां कुफ्र का जनम तो हुआ जलालुद्दीन अकबर के दौर में, जो इस्लाम को झुठलाकर अपना मज़हब बनाने को चल दिया, शायद अल्लाह-हो-अकबर के लुगवी मानी ले गया था।
बहरहाल, इन काफिरों ने बुतपरस्ती और मेहकशी जैसे गैरमुनासिब काम शुरू कर दिए और अपने आप को हिंदू बुलाने लगे। शराब की आमद से पाकिस्तान की वो ताक़त ना रही जो तारीख़ के तसल्सुल से होनी चाहिए थी। इसकी वजह ये नहीं थी कि मुसलमान शराब पीने लग पड़े थे, बल्कि ये कि उनकी सारी कुव्वत-ए-नफ्स शराब को ना पीने में वक्फ हो जाती थी, हुक्मरानी के लिए बचता ही क्या था। इसके बावजूद मुसलमानों ने मज़ीद दो सौ साल पाकिस्तान पर राज किया, फिर कुछ दिनों के लिए अंग्रेजों हुकूमत आ गई। (हमारी तफ्तीश के मुताबिक यही कोई चालिस हज़ार दिन होंगे)
सन् 1900 तक पाकिस्तान के मुसलमानों की हालत नासाज़ हो चुकी थी। इस दौरान एक अहम शख्सियत हमारी ख़िदमत में हाज़िर हुई, जिसका नाम अल्लामा इक़बाल था। इक़बाल ने हमें दो क़ौमी नज़रिया दिया। यही इनसे पहले सईद अहमद ख़ान ने भी दिया था, मगर इन्होंने ज़्यादा दिया। इस नज़रिये के मुताबिक पाकिस्तान में दो फर्क कौमें मौजूद थीं, एक हुक्मरानी के लायक मुसलमान कौम और एक गुलामी के लायक हिंदू कौम। इन दोनों का आपस में समझौता मुमकिन नहीं था।
सैयद अहमद खान ने भी मुसलमानों के लिए अंथक मेहनत की, मगर बीच में अंग्रेज़ के सामने सिर झुका कर सर का ख़िताब ले लिया। अंग्रेज़ी तालीम की वाह-वाह करने लगे। भला अंग्रेज़ी सीखने से किसी को क्या फ़ायदा। हर ज़रूरी चीज़ तो उर्दू में थी, पुरानी भी। सहाब-ए-कराम उर्दू बोलते थे। नबी-ए-करीम खुद भी। आपने अक्सर हदीस सुनी होगी, दीन में कोई जब्बार नहीं, ये उर्दू नहीं तो क्या है? अंग्रेज़ी में क्या था? बहरहाल इक़बाल से मुतास्सिर होकर एक गुजराती बैरिस्टर ने अंग्रेजों से छुटकारा हासिल करने की तहरीक शुरू कर दी। इस तहरीक का जोश और वलवले के साथ इस्तक़बाल किया।
इस बैरिस्टर का नाम मोहम्मद अली जिन्ना उर्फ क़ायद-ए-आज़म था। इन्होंने पाकिस्तान से आम तालीम हासिल करने के बाद ब्रिटेन से आला तालीम हासिल की और बैरिस्टर हो गए। क़ायद-ए-आज़म को भी सर का ख़िताब पेश किया गया था, बल्कि मलिका ब्रतानिया तो कहने लगीं कि अब से आप हमारे मुल्क में रहेंगे, बल्कि हमारे महल में रहेंगे और हम कहीं किराये पर घर ले लेंगे। मगर क़ायद की सांसें तो पाकिस्तान से वाबस्ता थीं, वो अपने मुल्क को कैसे नज़रअंदाज कर सकते थे।
1934 में क़ायद वापस आए तो पाकिस्तान का सियासी माहौल बदल चुका था। लोग मायूसी में मुब्तला थे। उधर दूसरी जंग-ए-अज़ीम शुरू होने वाली थी और गांधीजी ने अपनी फूहश नंग-धड़ंग मुहिम चला रखी थी। कभी इधर कपड़े उतारे बैठ जाते थे, कभी उधर। साथ एक नेहरू नामी हिंदू इक़बाल के दो क़ौमी नज़रिये का ग़लत मतलब निकाल बैठा था, लोग कहते हैं कि नेहरू बचपन से ही अलहदगी पसंद था। घर में अलहदा रहता था, खाना अलहदा बर्तन में खाता था और अपने खिलौने भी बाकी बच्चों से अलहदा रखता था। नेहरू का क़ायद-ए-आज़म के साथ वैसे भी मुक़ाबला था, पढ़ाई लिखाई में, सियासत में, मोहल्ले की लड़कियां ताड़ने में। ज़ाहिर है जीत हमेशा क़ायद की होती थी। लॉ के पर्चों में भी उनके नेहरू से ज़्यादा नंबर थे।
आज़ादी क़रीब थी। मुसलमानों का ख्वाब सच्चा होने वाला था, फिर नेहरू ने अपना पत्ता खेला। कहने लगा कि हिंदुओं को अलग मुल्क चाहिए। ये सिला दिया उन्होंने उस क़ौम का, जिसने उन्हें जनम दिया, पाल-पोस कर बड़ा किया। हमारी बिल्ली हमे ही भाव? नेहरू की साज़िश के बाइस जब 14 अगस्त 1947 को अंग्रेज़ यहां से लौट कर गए तो पाकिस्तानव के दो हिस्से कर गए।
अलहेदगी के फौरन बाद हिन्दुस्तान ने कश्मीर पर कब्ज़े का एलान कर दिया। दोनों मुल्कों के पटवारी फीते लेकर पहुंच गए। हमसाए मुमालिक फितरत से मजबूर तमाशा देखने पहुंच गए। खूब तू-तू, मैं-मैं हुई, गोलियां चलीं, बहुत सारे इंसान ज़ख्मी हुए, कुछ फौजी भी। फिर हिंदुओं ने एक और बड़ी साज़िश ये की कि पाकिस्तान से जाते हुए हमारे दो-तीन दरिया भी साथ ले गए। ये पूछना भी गवारा नहीं किया कि भाई, चाहिए तो नहीं? कपड़े वगैरह धो लिए? भैंसों ने नहा लिया?
ये मुआमलात अभी तक नहीं सुलझे, इसलिए इन पर मज़ीद बात करना बेकार है। तारीख़ सिर्फ वो होती है जो सुलझ चुकी हो या कम से कम दफ़न हो चुकी हो, जिस तरह क़ायद-ए-आज़म आज़ादी के दूसरे साल में हो गए। वो उस साल वैसे भी कुछ अलील थे और क्योंकि क़ौम की भरपूर दुआएं उनके साथ थीं, इसलिए जल्द ही वफात पा गए।
जिन्ना की वफात के बाद बहुत सारे लोगों ने क़ायद बनने की कोशिश की। इनमें पहले लियाक़त अली ख़ान थे, क्योंकि ख़ान साहेब अलील नहीं हो रहे थे (और उनको तीन साल का मौका दिया गया था इस आसान मश्क़ के लिए) लिहाज़ा उनको 1951 में खुद ही मामा पड़ा। फिर आए ख्वाज़ा निज़ामुद्दीन। अब नाम का नाज़िम हो और ओहदे का वज़ीर, ये बात किसको लुभाती है। इसलिए चंद ही अरसे में गवर्नर जनरल गुलाम मोहम्मद ने इनकी छुट्टी कर दी। जी हां, पाकिस्तान में उस वक्त सदर की बजाय गवर्नर जनरल होता था। आने वाले सालों में इख्तिसार की मुनासिबत से ये सिर्फ जनरल रह गए, गवर्नर गायब हो गया।
जनरल का ओहदा पाकिस्तान का सबसे बड़ा सियासी ओहदा है। उसके बाद कर्नल, मेजर वगैरह आते हैं। आखिर में वज़ीर मुशीर आती हैं। पाकिस्तान की आज़ादी के कई सालों तक कोई हमे आईन ना दे पाया। फिर जब इस्कंदर मिर्ज़ा ने आईन नाफिज़ किया तो उसमें जरनैलों को अपना मुक़ाम पसंद नहीं आया। आईन और इस्कंदर मिर्ज़ा को एक साथ उठाकर फेंक दिया गया। फील्ड मार्शल अयूब ख़ान ने हुकूमत संभाल ली। लड़खड़ा रही थी, किसी ने तो संभालनी थी। इस फैसले का क़ौम ने जोश और वलवले के साथ इस्तक़बाल किया।
अयूब ख़ान जमहूरियत को बेहाल करने, हमारा मतलब है, बहाल करने आया था। असल में जम्हूरियत क़ौम की शिरकत से नहीं मज़बूत होती, इमारतों और दीवारों की तरह सीमेंट से मज़बूत होती है, फौजी सीमेंट से। जी हां, आप भी अपनी जम्हूरियत के लिए फौजी सीमेंट का आज ही इंतिख़ाब करें। इस मौक़े पर शायर ने क्या ख़ूब कहा है- फौज़ी सीमेंटः पायेदार, लज़्ज़तदार, आलमदार।
अयूब ख़ान ने अपने दौर में कुछ मखोलिया इलेक्शन करवाए ताकि लोग अच्छी तरह वोट डालना सीख लें और जब असल इलेक्शन की बारी आए तो कोई गलती ना हो। मगर जब 1970 के इलेक्शन हुए तो लोगों ने फिर गलती कर दी, एक फितने को वोट डाल दिए। इस पर आगे तफ्सील में बात होगी। वैसे अयूब ख़ान का दौर तरक्की का दौर भी था। उन्होंने दावा किया था कि वो पाकिस्तान को मंजिल-ए-मक्सूद तक पहुंचाएंगे। मक्सूद कौन था और किस मंजिल में रहता था, ये हम नहीं जानते, मगर इस ऐलान का कौम ने जोश और वलवले के साथ इस्तक़बाल किया।
1965 में हिन्दुस्तान ने हमारी मिल्कियत में दोबारा टांग अड़ाई, जंग का भी ऐलान कर दिया, लेकिन बेइमान होने का पूरा सबूत दिया। हमे कश्मीर का कहकर खुद लाहौर पहुंच गए। हमारी फौज वादियों में ठंड से बेहाल हो गई और ये इधर शालीमार बाग़ की सैरें करते रहे। इस दग़ाबाज़ी के खिलाफ अयूब खान ने अक्वाम-ए-मुत्ताहेदा को शिकायत लगाई। वो ख़फा हुए और हिन्दुस्तान को एक कोने में हाथ ऊपर करके खड़े होने की सज़ा मिली, जैसे कि मिलनी चाहिए थी। इस फैसले का भी क़ौम ने जोश और वलवले के साथ स्वागत किया।
मगर हिंदू वो, जो बाज़ ना आए। 1971 में जब हम सबको इल्म हुआ कि बंगाली भी दरअसल पाकिस्तान का हिस्सा हैं, तो हिंदू उधर भी हमलावर हो गए। अब आप खुद बताएं, इतनी दूर जाकर जंग लड़ना किसको भाता है? हमने चंद हज़ार फौजी भेज दिए, इतना कहकर कि अगर दिल करे तो लड़ लेना। वैसे मजबूरी कोई नहीं है। मगर हिंदुओं को खुलूस कौन सिखाए, उन्होंने ना सिर्फ हमारे फौजियों के साथ बदतमीज़ी की बल्कि उन्हें कई साल तक वापस भी नहीं आने दिया। बंगाल भी हमारे से जुदा कर दिया और तशद्दुद के सच्चे इल्ज़ामात भी लगाए। आख़िर सच्चा इल्ज़मा झूठे इल्ज़ाम से ज़्यादा ख़तरनाक होता है क्योंकि वो साबित भी हो सकता है।
इसके बाद दुनिया में हमारी काफी बदनामी हुई। लोग यहां आना पसंद नहीं करते थे बल्कि हमारे हमसाए मुमालिक भी किसी दूसरे बार-ए-आज़म में जगह तलाश करने लगे कि इनके पास तो रहना ही फिज़ूल है। ऐसे मौके पर हमें एक मुस्तक़िल मिजाज़ और दानिशवर लीडर की ज़रूरत थी, मगर हमारे नसीब में ज़ुल्फिक़ार अली भुट्टो था। जी हां, वही फितना जिसका कुछ देर पहले ज़िक्र हुआ था।
भुट्टो एक छोटी सोच का छोटा आदमी था, उसके ख्याल में मुसलमानों की तक़दीर रोटी, कपड़े और मकान तक महदूद थी। उसके पाकिस्तान में महलों और तख़्तों और शहंशाही की जगह नहीं थी, हमारी अपनी तारीख़ से महरूम कर देना चाहता था हमें। भुट्टो से पहले हम रूस से इस्तेमाल शुदा हथियार मंगाते होते थे। भुट्टो ने रूस से इस्तेमाल शुदा नज़रिया भी मांग लिया, लेकिन इस्तेमाल शुदा चीज़ें कम ही चलती हैं। ना कभी वो हथियार चले, ना नज़रिया।
तमाम सनत ज़ब्त करके सरकारी खाते में डाल दी गई। साम्यकारी की खूब आत्मा रोली गई, उसको मजाज़ी तौर पर दफना कर उसकी मजाज़ी कब्र पर मुजरे किए गए। लोगों से उनकी ज़मीनें छीन ली गईं। वो ज़मीनें भी जो उन्होंने किसी और के नाम पर लिखवाई हुई थीं। ये ज़ुल्मत नहीं तो क्या है? ये पाकिस्तान का सबसे तश्विशनाक मरहला था, ऐसे में क़ौमी सलामती के लिए आगे बढ़े हज़रत जनरल ज़िया-उल-हक़, (रहमतुल्लाह अलह)।
उन्होंने भुट्टो से हुकूमत छीन ली और उनर क़ातिल और मुल्क दुश्मन होने के इल्ज़ामात लगा दिए। ज़िया-उल-हक़ ने कानून का एहतराम करते हुए भुट्टो को अदालत का वक्त ज़ाया नहीं करने दिया। बस इल्ज़ाम की बिना पर ही फैसला ले लिया और भुट्टो को फांसी दिलवा दी। इस हरकत का कौम ने जोश और वलवले के साथ इस्तक़बाल किया।
हज़रत ज़िया-उल-हक़ पाकिस्तानियों के लिए एक नमूना थे, हमारा मतलब है, मिसाली नमूना। उन्होंने यहां शरियत का तार्रुफ करवाया, हद के क़वानीन लगाए, नशाबंदी कराई। इस इक़दाम का क़ौम ने होश और वलवले के साथ इस्तक़बाल किया।
उनके दौर में हमारी फौज-अल-अज़ीम ने रूस पर जंगी फतह हासिल की। रूस अफगानिस्तान में जंग लामय आया था। उसने सोचा होगा कि यहां अफगानियों से लड़ाई होगी, ये उसकी खेमख्याली थी। इस मौक़े पर शायर ने खूब कहा है- तेरा जूता है जापानी, ये बंदूक इंग्लिस्तानी, सिर पे लाल टोपी रूसी, फिर भी जीत गए पाकिस्तानी।
आखिर अफसोस कि इस्लाम के इस मुजाहिद के खिलाफ बाहरी ताक़तें साज़िश कर रही थीं। 1987 में यहूद-ए-नसारा ने इनके जहाज़ में से इंजन निकालकर पानी का नल्का लगा दिया, इसलिए परवाज़ के दौरान आसमान से गिर पड़ा और टूट के चूर हो गया। ज़िया-उल-हक़ भी टूट कर चूर हो गए और पाकिस्तान टूटे बग़ैर चूर हो गया क्योंकि हुकूमत में वापस आ गया भुट्टो ख़ानदान।
जैसा बाप, वैसी बेटी। इख्तियार में आते ही बेनज़ीर ने इस मुल्क को वो लूटा, वो खाया कि जो लोग ज़िया-उल-हक़ के दौर में बंगलों में रिहाइश पज़ीर थे, अब सड़कों पर रुलने लगे। जल्द ही बेनज़ीर को हुकूमत से ढकेल दिया गया और उसकी जगह बैठा दिया मियां मोहम्मद नवाज़ शरीफ को। लेकिन मियां साहेब ज़्यादा देर नहीं बैठ सके, उन्होंने आगे कहीं जाना था शायद और कुछ अरसे बाद बेनज़ीर वापस आ गईं। बेनज़ीर का दूसरा दौर-ए-हुकूमत मुल्क के लिए और बुरा साबित हुआ, पर ये अभी साबित हो ही रहा था कि उनकी हुकूमत को फिर से खत्म कर दिया गया। एक मर्तबा दोबारा नवाज़ शरीफ को ले आया गया। इस कारनामे का क़ौम ने जोश और वलवले के साथ इस्तक़बाल किया।
हां, नवाज़ शरीफ ने इस दौरान एक अच्छा काम ज़रूर किया। वो हमें एटमी हथियार दे गया, इसके होते हुए हमें कोई कुछ नहीं कह सकता था, इसके बलबूते पर हम दिल्ली से लेकर दिल्ली के इर्द-गिर्द कुछ बस्तियों तक, कहीं भी हमला कर सकते थे। अगर आपको भी लोग बातें बनाते हैं, तंग करते हैं, घर पर, काम पर तो एटमी हथियार बना लीजिए। ख़ुद ही बाज़ आ जाएंगे।
मगर ये बात अमरीका को पसंद नहीं आई और नवाज़ शरीफ उनके साथ वो ताल्लुक ना रख पाए जोकि एक इस्लामी रियासत के होने चाहिएं (मसलन सउदी वगैरह)। ऊपर से मियां साहेब ने कारगिल ऑपरेशन की भी मुखालिफत की, हालांकि हमारे से कसम उठवा लें जो मियां साहेब को पता हो कि कारगिल है कहां। इस बुज़दिली का सामना करने और पाकिस्तान को राह-ए-रास्त पर लाने का बोझ अब एक और जनरल परवेज़ मुशर्रफ के गले पड़ा और वो इस आज़माइश पर पूरा उतरे। उन्होंने आते के साथ क़ौम का दिल और खज़ाना लूट लिया।
परवेज़ मुशर्रफ का दौर भी तरक्की का दौर था, मुल्क में बाहर से बहुत सारा पैसा आया, खासकर अमरीका से। अमरीका को किसी ओसामा नामी आदमी की तलाश थी। हमने फौरन उन्हें दावत दी कि पाकिस्तान आकर ढूंढ लें, यहां पर हर दूसरे आदमी का नाम ओसामा है। मुशर्रफ साहेब का अपना नाम ओसामा पड़ते-पड़ते रह गया था। मुशर्रफ साहेब का दौर इंसाफ का दौर था, कोई नहीं कहता था कि इंसाफ नहीं मिल रहा बल्कि कहते थे कि इतना इंसाफ मिल रहा है कि समझ नहीं आती इसके साथ क्या करें? मगर उनके खिलाफ भी साज़िशी कार्रवाई शुरू थी। एक भेंगे जज ने शोर डाल दिया कि उन्होंने क़ौम के साथ ज़्यादती की है। क़ौम भी इनकी बातों में आकर समझने लगी कि उसके साथ ज़्यादती हुई है। लोग मुशर्रफ को कहने लगे कि वर्दी उतार दो। अब भला ये कैसी नाज़ेबा दरख्वास्त है। वैसे भी वर्दी तो वो रोज़ उतारते थे, आखिर वर्दी में सोते तो नहीं थे। मगर लोग मुतमईन नहीं हुए, वर्दी उतारनी पड़ी। ताक़त छोड़नी पड़ी। आम इंतिखाबात का ऐलान करना पड़ा।
बेनज़ीर भुट्टो साहिबा मुल्क वापस आईं, लेकिन सेहत ठीक ना होने की बाइस वो अपने ऊपर जानलेवा हमला नहीं बर्दाश्त कर पाईं। सियासत में जानलेवा हमले तो होते रहते हैं। मुशर्रफ साहेब ने खुद झेले, अभी तक जिंदा हैं, यही उनकी लीडरी का सबूत है। फिर भी इन इंतिखाबात में जीत पीपुल्स पार्टी की ही हुई। बेनज़ीर की बेवा, आसिफ अली ज़रदारी को सरदार मुंतखिब कर दिया गया। इससे पार्टी में बदला कुछ नहीं, फरक इतना पड़ा कि बेनज़ीर सिर्फ बाप की तस्वीर लगाकर तकरीब करती थी, ज़रदारी को दौ तस्वीरें लगानी पड़ती थीं।
अब पाकिस्तान के हालात फिर बिगड़ते जा रहे हैं। बिजली नहीं है, गैस नहीं है, अमन-ओ-इमान नहीं है, इक्तिदार में लुटेरे बैठे हुए हैं। फौज फिर से मुंतज़िर है कि कब आवाम पुकारे और कब वो आकर मुआशरे की इस्लाह करें। अच्छे-खासे लगे हुए मार्शल ला के दरमियान जब जम्हूरियत नाफिज़ हो जाती है तो तमाम निज़ाम उल्टा-सीधा हो जाता है। पिछली इस्लाह का कोई फायदा नहीं रहता, नए सिरे से इस्लाह करनी पड़ती है।
अभी कुछ ही रोज़ पहले ही सदर ज़रदारी दिल के दौरे पर मुल्क से बाहर गए थे। पीछे से साबिक़ क्रिकेटर इमरान खान जलसे पे जलसा कर रहे हैं। लोग कहते हैं कि इमरान खान फौज के साथ मिलकर हुकूमत को हटाना चाहता है। लोगों के मुंह में घी-शक्कर। शायर ने भी इमरान खान के बारे में क्या खूब कहा है- जब भी कोई वर्दी देखूं, मेरा दिल दीवाना बोले, ओले, ओले, ओले। उम्मीद रखें, जैसे लोग कहते हैं, वैसा ही हो। और इसके साथ हमारे मज़मून का वक्त खत्म हुआ चाहता है। हमें यक़ीन है इस बात का क़ौम जोश और वलवले के साथ इस्तकबाल कराएगी।

(हसीब आसिफ पाकिस्तान के मज़ाह निगार हैं। यह व्यंग्य काफिला से साभार। )

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें