मेरे क़दमों की ज़मीन से आसमान तलक
मुठ्ठी भर हौंसले, चुटकी भर जुनूँ , नन्हें अरमान
मचलती सोच भर का फासला है ।
जब दौड़ती हूँ ज़मीन पर
साँस फूलने लगती है
पाँव से धीरे-धीरे एक दर्द ऊपर बढ़ता हुआ
पूरे जिस्म को तोड़ने लगता है ।
मगर रफ़्तार है कि बढ़ती जाती है
निरा पागलपन सीमाएं तोड़ने को उकसाता है ।
मील के हर पत्थर को पीछे छोड़ते हुए
मैं आगे बढ़ती हूँ ।
मुझे कुछ नज़र नहीं आता
सब कुछ धुंधलाने लगता है
और फिर एक आख़िरी क़दम
मैं गिर पड़ती हूँ ।
कमाल है ना !
तालियों की गड़गड़ाहट से मेरा इस्तकबाल होता है
चमकता सोना मेरे गले में
हँसी से ख़ुश्क होंठ लबरेज़ होते हैं
मैं गिर कर टूटती नहीं !
मेरा क़द और भी बढ़ जाता है
उस एक लम्हे में,
जब आसमान ज़मीन तक चला आये
ऊपर ताकते रहने की ज़रुरत नहीं रहती
कुछ नीला-नीला सा सब ज़मीन पर पसर आता है
‘जीत’ ज़िन्दगी का ज़ायका ही बदल डालती है यार मेरे ! --------------- रश्मि चौधरी
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