रविवार, 21 अप्रैल 2013

नीला



मेरे क़दमों की ज़मीन से आसमान तलक
 
मुठ्ठी भर हौंसले, चुटकी भर जुनूँ , नन्हें अरमान
मचलती सोच भर का फासला है ।
जब दौड़ती हूँ ज़मीन पर
 साँस फूलने  लगती है
पाँव  से धीरे-धीरे एक दर्द ऊपर बढ़ता हुआ
पूरे जिस्म को तोड़ने लगता है ।
मगर रफ़्तार है कि बढ़ती जाती है
निरा पागलपन सीमाएं तोड़ने को उकसाता  है ।
मील के हर पत्थर को पीछे छोड़ते हुए
मैं आगे बढ़ती हूँ ।
मुझे कुछ नज़र नहीं आता
सब कुछ धुंधलाने लगता है
और फिर एक आख़िरी क़दम
मैं गिर पड़ती हूँ ।
कमाल है ना !
 तालियों की गड़गड़ाहट से मेरा इस्तकबाल होता है
चमकता सोना मेरे गले में
 हँसी से ख़ुश्क होंठ लबरेज़ होते हैं
 
मैं गिर कर टूटती  नहीं !
मेरा क़द और भी बढ़ जाता है


उस एक लम्हे में,
जब आसमान ज़मीन तक चला आये
ऊपर ताकते रहने की ज़रुरत नहीं रहती
कुछ नीला-नीला सा सब ज़मीन पर पसर आता है
‘जीत’ ज़िन्दगी का ज़ायका  ही बदल  डालती है यार मेरे !
              
                                                                                             --------------- रश्मि चौधरी 

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