रविवार, 16 सितंबर 2012

बस की खिड़की और बारिश की बूंदे


                                      बस की खिड़की और बारिश की बूंदे



बस की खिडकी पर ....

बारिश की बूंदें......
गिरते ही बना लेती है लडियाँ....
फिसलती शीशे पर......
गढ़तीं मनगढंत आकार .......
बिना किसी ज्यामितीय माथा पिच्ची के ....
बहुत कुछ उस बच्चे की तरह .........
जो पहली बार स्लेट पकड़ता है .....
और पेंसिल से बना लेता है , आकृतियाँ.....
..................................................
फिसलती बूंदों के लड़ियो के उस पार .....
झमाझम बारिश और रास्ते के सारे रंग....
घुला घुला सा नजर आता है .........
बिना किसी पूर्वाग्रह से बनाई गई ......
उस पेंटिंग की तरह ......
जिसमें चित्र की कल्पना में डूबा चित्रकार .....
रंग और पानी के अनुपात को परखे बिना .......
बस ब्रश चलाता नजर आता है ..............
.....................................................
बस की खिडकी पर बारिश की बूंदें.....
फिसलती शीशे पर......
मनचले रास्ते चुनती .......
फिर भी उनका गंतव्य होता .......
एक सिरे से दूसरे सिरे तक ......
बहुत कुछ उस जीवन की तरह .....
जिसका गंतव्य निश्चित होता है .....
रास्तों का पता नहीं होता .....
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थोडी ही देर में , ............
बारिश थम जाती है ........
निकल आती है सुनहरी धुप ....
और बारिश की लड़ियों के बनाये रास्तों .....
के सिर्फ चिहन्न नजर आते है .......
और एक - दो दिन में ........
ये भी अदृश्य हो जाते हैं......
बता जाते, जीवन का कोई भी छाप ......
समय के धुप के आगे स्थायी नहीं होता .........       - नेपथ्य निशांत 

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