पानी की लहर सतत
आगे बढ़े जा रही थी. जहाँ लहर जमीन को अपना अंतिम प्रणाम कह के फिर किसी और लहर में
मिलने को लौट जाती थी, मैं वहीँ पानी के सहारे सहारे लेटा हुआ था.
अचानक से एक जोर से लहर आयी और मुझे पूरा झकझोर दिया. उठा तो खुद को बालकनी में
आराम-कुर्सी पे बैठा पाया. उफ़..!! ये सपने भी, कभी कभी इतना दहका देते है कि जान हलक तक आ जाती है. आँखे मलते हुए मैंने
सामने की छत पर देखा. सामने दो खम्भों के बीच प्लास्टिक के तार बंधे हुए थे, जो हमेशा कपड़ो से लदे रहते थे. आज पता नहीं क्यूँ वो तार खुश लग रहे थे.
मद्धम-मद्धम हवा के साथ हिचकोले खा रहे थे. नित-रोज वो कपड़े धूप को उन्ही तक रोक
लेते थे और अड़ोस-पड़ोस के घर ऐसे बने हुए थे कि हमारे घर की बालकनी तक तो धूप आ ही
नहीं पाती थी. सर्दी में धूप सेकने के लिए फिर हमें भी छत पर जाना पड़ता था. आज उन
कपड़ो की गैर-मौजूदगी में कुछ मील दूर शहर की पहरेदारी करते उन पहाड़ों पर नज़र गयी.
सुबह हौले-हौले से पहाड़ों पर उतर रही थी. धीमे से ना जाने कब मेरी पलकों पर चढ़ गयी
और मेरी नींद को तहस-नहस कर दिया.
“बेटा रोहन”..!! काल्पनिक और वास्तविक दुनिया में उलझा हुआ था और पिताजी की आवाज़ आयी. “जी आया पिताजी”.. मैं अभी कुर्सी से उठा ही था कि वो बोले, “बेटा, सुबह-सुबह ताजे अखबार के साथ अगर तुम्हारे हाथ की बनी चाय की चुस्की लग जाती
तो मेरी सुबह पूरी हो जाती”. पिताजी को मेरे हाथ की चाय बड़ी सुहाती थी. बड़े
से बड़े, अच्छे से अच्छे रेस्तरां में ले जा के उन्हें महंगी से महँगी चाय पिलाई पर एक
चुस्की के बाद कहते “नहीं बेटा.. इसमें वो चाय का कडकपन और वो प्यार
नहीं है जो तुम्हारे माँ के हाथों में था. ये कला तुम्हे उस से विरासत में मिली
हैं..” और मेरा सीना गर्व से चार गज का हो जाता.
जहाँ जायके की बात
आ जाती वहाँ पिताजी को माँ की कमी का एहसास होता और चूँकि माँ मुझे जन्म देते ही
इस संसार से विदा हो गयी तो मुझे तो माँ के बारे में कुछ पता ही नहीं था. बस
तस्वीरों में माँ की आँखे, उनकी मुस्कराहट को बातो में ढाल कर मैं उनसे
बाते किया करता था. माँ को अपनी कल्पना के बादलों में नहलाकर अनुमान लगाता था कि
माँ ऐसी रही होंगी. थोड़े समय तक तो पिताजी ने मुझे मासी के पास छोड़ दिया ये सोच के
कि इस नन्ही बिन माँ की जान को माँ का प्यार कैसे दे पाउँगा. परन्तु चंद महीनों
में ही मेरे बिना वो रह नहीं पाए और मुझे अपने साथ ले आये. फिर जब से मुझे समझ आने
लगी तब पिताजी का एकाकीपन मुझे इशारों-इशारों में पुकारता था. मैं घर के कामों में
उनकी सहायता करने लगा. बीते बीस सालों में पिताजी ने मुझे कभी भी माँ की
कमी नहीं खलने दी. हर एक बात में माँ को इस तरह ले आते थे कि जैसे माँ हमारे साथ
ही हैं, और हमें देख रही है. अक्सर पिताजी कहा करते थे कि “उसे मेरा इतना
ख़याल था कि जाते जाते तुझ में वो सारे गुण और वो सारी बातें उड़ेल गयी कि मुझे कब
क्या चाहिए और क्या नहीं.. उसे मेरी इतनी फिकर थी और कभी ये जानने की कोशिश नहीं
की कि मुझे उसकी कितनी फिकर थी..” और इतना कहते-कहते उनकी आँखों से आंसू की दो
बूँद उनके गालों पर लुढक पड़ती. समानांतर मैं अपने सैलाब को अपनी आँखों में समेट कर
माँ-पिताजी की उस तस्वीर में खुद को किसी कोने में खड़ा देखता.
"बेटा आज अदरक थोड़ी
कम डालना. सुबह-सुबह मुँह कसैला हो जाता है तो दिनभर मुँह का स्वाद
बिगड़ा रहता है." पिताजी भी ना, रोज-रोज नए प्रयोग कराते है. कभी शक्कर कम
डालना, कभी चाय की पत्ती ज्यादा डालना. दो लोगो की चाय में चीनी कम-पत्ती ज्यादा
कितना नाप-तोल के डालें, पर नहीं. चाय का स्वाद जैसा होता है वैसा ही
होना चाहिए. पर पारखी को तो हर चीज में निपुणता चाहिए होती है क्यूँ कि वो खुद
इतना निपुण है उस चीज में तो दुसरे से भी उतना ही उम्मीद करता है. जब जब भी मैं इस
मामले में कोई गलती करता था, उसी वक़्त वो उनके ज़माने की सैर करा देते थे.
वो मुझे बताया करते थे कि कैसे वो अपने ज़माने के पाक-शास्त्री थे. उनके सरे मित्र
उनके हाथ के बने खाने के कायल थे. कॉलेज समय में सप्ताहंत में एक दिन पिताजी के
नाम का होता था जब पिताजी खाना बनाया करते थे. माँ खुद इनके हाथ के खाने की बहुत
बड़ी प्रशंसक थी. शादी के बाद माँ की फरमाइश पे उनकी पसंद का खाना बनता था. माँ जब
भी रूठ जाया करती थी तो पिताजी का राम-बाण हुआ करता था ये. फिर पिताजी और माँ का
रूठना मानाने का सिलसिला चालू होता. इन बातों में भी पिताजी इतनी छौंक लगा
के बताते थे कि मैं बस एकटकी लगाये उनकी बातों में खो जाता था.
मैं बचपन में
अक्सर पिताजी से पूछा करता था कि क्या माँ इतनी निष्ठुर हो गयी थी कि अपनी खुद की
जिंदगी का सौदा मेरी जिंदगी और आपकी जिंदगी के साथ कर बैठी. क्या उन्होंने ये नहीं
सोचा कि उनके बिना आप अकेले कैसे जी पाएंगे..? और पिताजी उपर से बनते हुए मुझे समझाते कि “बेटा, तुम्हारी माँ निष्ठुर नहीं थी. मुझे पता है उन नौ महीनों में तुझे कितने प्यार
से पाला है, इतना प्यार कि शायद अगर वो जिंदा होती तो उम्रभर तुझे इतना स्नेह नहीं दे
पाती..” फिर हँसते हुए पिताजी कहते “कभी कभी तो मुझे इर्ष्या होने लगती कि उसका
प्यार अब हम दोनों में बंट रहा है.” और ये कहते हुए पिताजी मुझे अपने कंधे पर उठा
पूरे घर में घुमा घुमा के मुझे माँ के बारे में बताते थे. पिताजी में वो जादू था, बात को छेड़ कर तरह-तरह के मोड़ से गुजारते हुए इस तरह से गायब कर देते थे कि
मुझे भनक भी नहीं लगती कब बात खतम हो गयी.
छन्न-छन्न की आवाज़
के साथ मेरी तन्द्रा टूटी तो देखा कि चाय उफन के गैस पे फ़ैल गयी थी. बरामदे से
आवाज़ आयी "क्या हुआ..?? फिर से चाय फैला दी. कोई सा तो काम ढंग से पूरा कर लिया कर." इस से
पहले कि पिताजी ये देखे मैं कपड़ा ढूंढने लगा. एक बार याद है मुझे जब पिताजी रसोई
में खाना बना रहे थे और मैं उन्हें हाथ बंटाने के मकसद से आया था, पर तेल की कड़ाही में पानी गिर गया मेरे हाथ से फिर क्या था, सारा उबलता हुआ तेल पानी लगते ही ज्वालामुखी बन बैठा और लगभग पिताजी और मैं
झुलसते झुलसते बचे. जैसे तैसे पिताजी ने कड़ाही को ठीक किया और पिल पड़े मुझ पर. और
गुस्सा होना भी लाज़मी था, अभी जल जाते उस खौलते तेल से तो बैठे बिठाये
लेने के देने पड़ जाते. और वो पहली बार था जब पिताजी का मुझ पर हाथ उठा था. जिस
कोमल हाथ ने ना जाने कितनी बार मेरे गाल सहलाये थे, सर पर आशीर्वाद रखा था वही हाथ उस दिन पहली बार पत्थर से भी ज्यादा कठोर जान
पड़ा और वो वज्र जैसा हाथ सीधा आके मेरे गाल पे लगा. मैं लड़खड़ाते हुए जैसे तैसे
संभला, फिर गाल पर हाथ रखे वहीँ खड़ा हो गया. एक भी आंसू नहीं निकला मेरी आँख से, पर वो थप्पड़ गाल पर लगने से ज्यादा दिल पे लगा था. एक तो मैं उनका काम बाँटने
गया और बदले में एक थप्पड़. हालांकि समझ की कमी ने मुझे उस वक़्त कुछ सोचने नहीं
दिया. परन्तु उस समय के लिए एक गुस्सा सा पैदा हो गया था उस बाल मन में. कुछ दिन
मैंने पिताजी से बात नहीं की. वो सुबह उठकर मेरा टिफिन तैयार करते और मैं बिना टिफिन
उठाये ही स्कूल के लिए निकल लेता.
फिर पिताजी को
शायद लगने लगा कि आवेश में आकर हाथ नहीं उठाना चाहिए था. और यहीं से सिलसिला चालू
हुआ उनका मुझे मनाने का. स्कूल बस के बजाय मुझे स्कूटर पे छोड़ने जाते, लेने को आते, मेरी मन पसंद चीजे दोनों वक्त खाने में होने लगी.
उन चंद दिनों में मैंने हर वो मिठाई पेट भर के खायी जो मुझे बहुत पसंद थी. मेरे
बालमन को इस खेल में अब मजा आने लगा. पर पिताजी से कब तक नाराज़ रहता. कुछ ही दिनों
में फिर से वही दोस्ती.
चाय को दो कपों
में डाल के ट्रे में रख कर मेरी निगाहें बिस्किट ढूंढ रही थी. सब डिब्बे खंगाल दिए
किसी में न मिले. कब से मन में ये डर था कि पिताजी चाय के लिए अब पूछेंगे- अब पूछेंगे. आखिरकार चाय ठंडी होने के डर से मैं बिना बिस्किट के ही
रसोयी से निकल गया. पिताजी.. “चाय ठंडी हो रही है..” मैं हॉल में आते से पिताजी को आवाज़ लगायी. कोई प्रतिउत्तर नहीं मिला. उन्हें
ढूंढती हुयी मेरी नज़रें इधर-उधर ताक रही थी. इतने में सामने वाली दीवार पे मेरी
निगाह गयी. सामने पिताजी की तस्वीर फूलों के हार से सुसज्जित थी. ये देख के एक पल
के लिए मेरी रगों में जैसे प्रलय आ गया हो. कुछ क्षण के लिए अपलक उस तस्वीर को
निहारते हुए पिताजी के बारहवे के सारे पल मेरे मन-मस्तिष्क में डोले खाने लगे. आज
पिताजी को इस दुनिया से गए हुए 12 दिन हो गए है पर ऐसा लगता है कि अभी भी मुझे
रोज की सुबह की तरह चाय बनाने को कहते हो. रह-रह कर ये सवाल मेरे मन में उठ रहा था
कि क्यूँ पिताजी.. आखिर क्यूँ.. मुझे आप इस दुनिया में अकेले छोड़ कर चले गए?? आप के सिवा था ही कौन मेरा यहाँ..? आप माँ को स्वार्थी कहते थे.. कि वो मेरे लिए
आपको अकेला छोड़ के चली गयी. अब मैं आपको क्या कहूँ..?? जिस नन्ही जान को माँ आपके भरोसे छोड़ गयी थी, आप भी उसे इस तरह अकेला छोड़ गए, क्या मुहँ लेके जाओगे माँ के पास..??
ये सोचते सोचते वो
सैलाब जिसे मैं बहुत देर से रोके बैठा हुआ था, फट पड़ा. “माँ.. पिताजी को कुछ मत कहना माँ.. उन्होंने बखूबी मेरा खयाल रखा. इन 20 सालों में मुझे कभी भी तुम्हारी कमी महसूस नहीं होने दी. पिताजी को कुछ मत
कहना...!!” और कमरे में फफक-फफक के रोने की आवाजे गूंजने लगी…!!
- कन्हैया (कनु)
हृदयस्पर्शी कहानी......आँखों के सामने पिता पुत्र की रोज़मर्रा की बातों का सिलसिला.....और चाय....का किस्सा.....सदृश्य हो उठा.....और भावनाओं से ओतप्रोत.... अंतिम भाग......
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत शुक्रिया.. :D
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