वही पुरानी सर्द रात थी
कोई कांप रहा था राह पर
फटी चादर खुद पर ढांक कर
जैसे सर्दी से कुछ कह रहा हो
लड़ भी रहा सह भी रहा हो
सर्दी शायद उसी को खोज रही थी
कहाँ भटक रहा पूंछ रही थी
क्या छुपा रहा इस चादर से
बदन क्षीण लग रहा बाहर से
छेदों से चादर के अन्दर तक जाती
रोम रोम को तलाश कर आती
बड़े बड़े तो मुझसे डरते
घरों और बिस्तर में घुसते
तू क्यूँ इतना अकड़ रहा है
चिथडों को क्यूँ जकड रहा है
कहता क्या वो एक गरीब था
भटकना, कांपना उसका नसीब था
कुछ होता तो वो छुपाता
औरों से खुद को बचाता
ठण्ड से वो तो अकड़ रहा था
चादर से अपनी झगड़ रहा था
दुआ मांगता रब से हाथ उठाये
बस आज की रात और निकल जाये
सुबह के सूरज में जी लेगा
दुःख की चादर वो सी लेगा
उम्मीद के तारों ने उसे जगाये रखा
कल की हकीकत को छुपाये रखा
ये दिन भी रोज जैसा गुजरा
रात का सपना फिर से बिखरा
आज भी वही चादर , वही बात थी
वही पुरानी सर्द रात थी
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें