शनिवार, 12 जनवरी 2013

वही पुरानी सर्द रात थी


कोई  नयी  सी  ना  बात  थी
वही  पुरानी  सर्द  रात  थी
कोई  कांप  रहा  था  राह पर
फटी  चादर  खुद  पर  ढांक   कर 
जैसे  सर्दी  से  कुछ   कह  रहा  हो
लड़  भी  रहा  सह  भी  रहा  हो
सर्दी  शायद  उसी  को  खोज  रही  थी
कहाँ  भटक  रहा  पूंछ रही  थी
क्या  छुपा  रहा  इस  चादर  से
बदन  क्षीण  लग  रहा  बाहर   से
छेदों  से  चादर  के  अन्दर  तक  जाती
रोम  रोम  को  तलाश   कर  आती
बड़े  बड़े  तो  मुझसे  डरते
घरों  और  बिस्तर  में  घुसते
तू  क्यूँ  इतना  अकड़  रहा  है
चिथडों  को  क्यूँ  जकड  रहा  है

कहता  क्या  वो  एक  गरीब  था
भटकना, कांपना  उसका  नसीब  था
कुछ  होता  तो  वो  छुपाता
औरों  से  खुद  को  बचाता
ठण्ड  से  वो  तो  अकड़  रहा  था
चादर  से  अपनी  झगड़  रहा  था
दुआ  मांगता  रब  से  हाथ  उठाये
बस  आज  की  रात  और  निकल  जाये
सुबह  के  सूरज  में जी  लेगा
दुःख  की  चादर  वो  सी  लेगा
उम्मीद  के  तारों  ने  उसे  जगाये  रखा
कल  की  हकीकत  को  छुपाये  रखा
ये  दिन  भी  रोज  जैसा  गुजरा
रात  का  सपना  फिर  से  बिखरा
आज  भी  वही  चादर , वही  बात  थी
वही  पुरानी  सर्द  रात  थी

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