हाँ तू है उर्वशी, मेरी निश्छल प्रेयसी,
अगणित भवरों की लिप्सा अतृप्त कली,
क्यों है प्रथम स्नेह की अबोध संसृति,
करती मृदु मुस्कान से उर्जस्वित प्रीती ;
हो उत्प्लवन अभिलाषा नहीं संकोच मृगनयनी ,
दुर्लभ स्वप्न नहीं, है बनना संगीतमयी सहधर्मिणी
------------------- शिवेंद्र सिद्धार्थ "शाहबाज़"
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